Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 655
________________ ६१६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ "सब कर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध उत्कृष्ट योगके सदभावमें होता है। और उत्कृष्ट योगका जघन्य काल एक रहस्यमय और उत्कृष्ट काल दो समय है। इसलिए यहाँ ओघसे आठों कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। यह सम्भव है कि अनुत्कृष्ट योग एक समय तक हो और अनुत्कृष्ट योगके सद्भावमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव नहीं, इसलिए ओघसे आठों कर्माके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है। अब शेष रहा आठों कर्मोके अनत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल सो उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है विशेषार्थमें यह ध्यान बराबर रखा गया है कि जो बात पहले लिख आये हैं उसकी पुनरावृत्ति न हो। इसलिए कहीं-कहीं संकेत या उल्लेख भी किया गया है। जैसे कि काल-प्ररूपणाके प्रकरणमें विशेषार्थ में लिखा गया है 'कालका खुलासा पहले जिस प्रकारकर आये हैं उसे ध्यानमें रखकर यहाँ भी कर लेना चाहिए । मात्र बादर पर्याप्त निगोदोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त जानना चाहिए।' इस प्रकार आगम ग्रन्थोके सतत अभ्याससे जिन्होंने सिद्धान्तके प्ररूपणमें विशदता प्राप्त की है उनके सम्पादित ग्रन्थ स्वतः सिद्धान्तमय हैं. इसमें आश्चर्यकी क्या बात है? तत्त्वार्थसूत्रटीका : एक समीक्षा डॉ० पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर तत्त्वार्थसूत्र के पूर्व जैन श्रुतमें तत्त्वोंका निरूपण भगवन्त पुष्पदन्त और भूतबलिके द्वारा प्रचारित सत् संख्या आदि अनुयोगोंके माध्यमसे होता था। इसका उल्लेख तत्त्वार्थसूत्रमें 'सत्संख्या क्षेत्र स्पर्शन कालाम्तर भावाल्प बहुत्वैश्च' सूत्रके द्वारा किया है। इस शैलीका अनुगमन करनेवाला आचार्य नेमिचन्द्रजीका गोम्मटसार है। उमास्वामी महाराजने तत्वार्थसूत्रमें जिस शंलीको अंगीकृत किया, वह सरल होनेसे सबको ग्राह्य हई। तत्त्वार्थसूत्रपर दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें विविध संस्कृत टीकाएँ लिखी गई है। आचार्य पज्यपादकी 'सवार्थसिद्धि' अकलंकदेव का राजवार्तिक विद्यानन्दका श्लोकवार्तिक और उमास्वातिका तत्वार्थाधिगमभाष्य अत्यन्त प्रसिद्ध टीकाएँ हैं । समन्तभद्र स्वामोके गन्धहस्ति महाभाष्यका उल्लेख मात्र मिलता है पर ग्रन्थ कहीं उपलब्ध नहीं हो रहा है। यह रही संस्कृत टीकाओंकी बात. परन्त तत्त्वार्थसत्रकी शैलीसे तत्वोंका निरूपण करनेवाले हरिवंशपुराण, आदिपुराण, पद्मपुराण तत्त्वार्थसार तथा पुरुषार्थसिद्धयपाय आदि अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध है। तात्पर्य यह है कि यह तत्त्व-निरूपणकी शैली ग्रन्थकारोंको इतनी रुचिकर लगी कि पूर्व शैलीको एकदम भुला दिया गया है । "तत्त्वार्थसूत्र" पर अनेकों विद्वानोंने हिन्दी टीकाएँ लिखी हैं जो संक्षिप्त, मध्यम और विस्तृत सब प्रकारकी हैं। पं० सदासुखरायजी कासलीवालकी 'अर्थ प्रकाशिका' नामकी विस्तृत टीका है। उसमें प्रसङ्गोपान्त अनेक विषयोंका समावेश किया गया है । आधुनिक टीकाओंमें सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्रीकृत और वर्णी ग्रन्थमालासे प्रकाशित टीका 'तत्त्वार्थसूत्र' हमारे सामने है। इस टीकामें पण्डितजीने टिप्पणमें श्वेताम्बर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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