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पंचम खण्ड : ६११ जिनसेन विरचित उपलब्ध होती है । इन दोनों टीकाओं के नाम-सादृश्यपर महाबन्धको कालान्तर में महाघवल कहा जाने लगा । क्योंकि आ० वीरसेनके समयमें धवल, जयधवलकी प्रसिद्धि थी । वस्तुतः महाबन्धपर कोई टीका आज तक उपलब्ध नहीं है । ब्रह्म हेमचन्द्र कृत 'श्रुतस्कन्ध' में कहा गया है
सत्तरसहस्वलो जयधवलो सट्ठिसहस्स बोधव्वो । महबंध चालीसं सिद्धततयं अहं वंदे ॥
अर्थात् - धवल टीका सत्तर हजार श्लोकप्रमाण है, जयधवल साठ हजार श्लोकप्रमाण है और महाबन्ध चालीस हजार श्लोकप्रमाण है । मैं इन तीनों सिद्धान्त ग्रन्थोंकी वन्दना करता हूँ । यहाँपर 'महाधवल' नामका उल्लेख नहीं है ।
षट्खण्डागमके प्रथम खण्डका नाम 'जीवट्ठाण' (जीवस्थान ) है । इसमें चौदह गुणस्थानों तथा चौदह मार्गणाओं की अपेक्षा सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर भाव, अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोग द्वारा जीवका कथन किया गया है । दूसरे खण्ड में ग्यारह प्ररूपणाओं द्वारा कर्मका बन्ध करनेवाले जीवका वर्णन है । तीसरे खण्ड में मार्गणाओं की अपेक्षा किस गुणस्थानमें कितनी प्रकृतियाँ बँधती हैं, कितनी बन्ध-व्युच्छित्ति होती है, इत्यादि सविस्तार वर्णन मिलता है । चौथे खण्डमें वेदना अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणदिक आठ कर्मोंकी द्रव्य वेदना, क्षेत्र वेदना, काल वेदना, भाव वेदना, प्रत्यय स्वामित्व वेदना तथा गति, अनन्तर, सन्निकर्ष, परिमाण, भागाभाग, अल्पबहुत्वका कथन । पाँचवें वर्गणा नामक खण्डमें कर्म प्रकृतियों तथा पुद्गलकी तेईस प्रकारकी वर्गणाओं का विस्तारसे वर्णन किया गया है । बन्धनके चार भेद कहे गये हैं—बन्ध, बन्धक बन्धनीय और बन्धविधान ।
प्रश्न यह है कि पाँचों खण्डोंमें कर्म विषयक लगभग सम्पूर्ण सामग्रीका निबन्धन हो जानेपर छठे खण्ड की क्या आवश्यकता थी ? इसका समाधान करते हुए पण्डितजी अपने लेखमें लिखते हैं- 'इस प्रकार उक्त पाँच खण्डों में निबन्ध विषयका सामान्य अवलोकन करनेपर विदित होता है कि उक्त पाँचों खण्डोंमें कर्म विषयक सामग्रीका भी यथासम्भव अन्य सामग्री के साथ यथास्थान निबद्धीकरण हुआ है । फिर भी, बन्धन अर्थाधिकारके बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चारों अर्थाधिकारोंका समग्र भावसे निबद्धीकरण नहीं हो सका है । अतः इन चारों अर्थाधिकारोंको अपने अवान्तर भेदों के साथ निबद्ध करनेके लिए छठे खण्ड महाबन्धको निबद्ध किया गया है।' इससे स्पष्ट है कि 'महाबन्ध' का मूल आधार बन्धन नामक अर्थाधिकार है ।
यह पहले ही कहा जा चुका है कि 'षट्खण्डागम' में छह खण्ड हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं - १. जीवट्ठाण (जीवस्थान), २. खुद्दाबंध ( क्षुल्लक बन्ध ), ३. बंधसामित्तविचय (बन्धस्वामित्व विचय), ४. वेयणा ( वेदना ), ५. वग्गणा ( वर्गणा ), ६. महाबंध ( महाबन्ध) | महाबन्ध में प्रमुख तत्त्व बन्धका विशदतासे विवेचन किया गया है । यद्यपि पाँचवें खण्ड में वर्गणाओंके तेईस भेदोंका सांगोपांग विवेचन हो चुका था, किन्तु बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधानका श्रृंखला रूपमें क्रमबद्ध विवेचन नहीं हो पाया था, इसलिए उसे उपन्यस्त करनेके लिए इस खण्डकी आचार्य भूतबलीको अलग से
संयोजना करनी पड़ी ।
प्रश्न यह है कि जीव द्रव्य स्वतन्त्र है और प्रत्येक पुद्गल द्रव्य स्वतन्त्र है । जब प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र सत्ता सम्पन्न है, तो बन्ध-अवस्था कैसे उत्पन्न हो जाती है ? इसी प्रकार एक जीव द्रव्यकी मुक्त और संसारी ये दो अवस्थाएँ कैसे होती हैं ? यह तो सभी जानते हैं कि किसी भी कार्यके निष्पन्न होनेमें एक नहीं, अनेक कारण होते हैं। बिना कारणके कोई कार्य नहीं होता । वे कारण दो प्रकारके होते हैं—अन्तरंग और बहिरंग | उनमें अन्तरंग कारण प्रबल माना जाता है । आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि प्रत्येक द्रव्यके कार्य में बाह्य
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