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पंचम खण्ड : ६०९
धान लिखकर उनको अलग-अलग प्रस्तुत किया गया है। इनमें कई महत्वपूर्ण प्रश्न तथा उनके उत्तर सम्मि लित है। जैसेकि शंका-उपशपसम्यक्त्वके कालमें तीन दर्शनमोहनीयकी स्थिति निषेक द्वितीय स्थितिमें अवस्थित रहते हैं, अतः उनका गलन नहीं होनेके कारण अवस्थित काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्राप्त होता है, उसे यहाँ क्यों नहीं ग्रहण किया ?
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समाधान —— नहीं, क्योंकि वहाँ पर तीनों कर्मोकी कर्मस्थितिके समयोंके प्रत्येक समयमें गलते रहनेपर स्थितिका अवस्थान माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि निषेकोंको स्थितिपना प्राप्त हो जाएगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि द्रव्यको पर्याय रूप माननेमें विरोध आता है। अर्थात् निषेक द्रव्य हैं और उनका एक समय तक कर्म रूप आदि रहना पर्याय है। चूंकि द्रव्यसे पर्याय कथंचित् भिन्न है, अतः पर्यायके विचारमें द्रव्यको स्थान नहीं । जिसके सम्यक्त्वकर्मकी सत्ता नहीं है ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्वको ग्रहण करता है। तब उसके सम्यक्त्वके ग्रहण करने के प्रथम समयमें एक समय तक अवक्तव्यस्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि पहले अविद्यमान सम्यक्त्व और सम्पग्मिथ्यात्व की इनके उत्पत्ति देखी जाती है। इस अवक्त व्यस्थितिविभक्तिका काल एक समय ही है, क्योंकि दूसरे समय में अल्पतर स्थितिविभक्ति उत्पन्न हो जाती है।
करणानुयोगके इन महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थोंमें जिनवाणीकी सूक्ष्मताके साथ अत्यन्त गम्भीरता पद-पद पर लक्षित होती है । यथार्थ में भगवन्त आचार्य भूतबलिके गूढ़ रहस्यको समझकर सरल भाषामें प्रकट करना अपने आप एक महान् कार्य है जो सभी दृष्टियोंसे श्लाघनीय है, विषय इतना सूक्ष्म और गहन है कि हम तुच्छ बुद्धि वाले उसकी क्या समीक्षाकर सकते हैं? केवल प्रस्तुतीकरण के सम्बन्धमें ही दो-चार शब्द कहकर अपने भाव प्रस्तुत कर सकते हैं ।
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कहना न होगा कि क्या भाव, क्या अर्थ, क्या सम्पादन और क्या सिद्धान्तशास्त्र ? सभी दृष्टियोंसे धवल, जयपवल आदि महान् ग्रन्थोंको अपने वास्तविक रूपमें प्रकटकर पण्डितजीने महान् आदर्श प्रस्तुत किया है। हम उनके प्रति प्रशंसाके भाव ही प्रकाशित कर सकते हैं । हमारा यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि इतना अधिक कार्य सर्वांग सुन्दर है फिर भी प्रथम बारमें एक साथ इतना बड़ा कार्य देखकर यह आश्चर्य अवश्य होता है कि जो कार्य एक समृद्ध बड़ी संस्थाके माध्यम से कई विद्वान् मिलकर एक युगमें सम्पन्न कर पाते, वह अकेले व्यक्ति कुछ ही वर्ष में सम्पूर्ण कर दिया। इसलिये यदि यह कहा जाय कि जैन सिद्धान्त, आगम तथा अध्यात्मके क्षेत्रमें पण्डित फूलचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य किसी विश्वकोषसे कम नहीं है, तो अत्युक्ति न होगी तथा इस कार्यके द्वारा आदरणीय पण्डितजी स्वयं इस परम्पराकी महत्वपूर्ण कड़ी बन गये हैं।
आदरणीय पण्डितजीको यह भी विशेषता रही है कि अच्छे सम्पादन, अनुवाद और विवेचन आदि कार्यों हेतु जहाँसे जो सहायता मिल सकती है, उसे लेने के लिए ही सदा तत्पर रहते हैं। महाबन्ध पुस्तक तृतीयके सम्पादकीयमें उन्होंने सम्माननीय बन्धु रतनचन्द्रजी मुस्तार तथा सहारनपुरके श्री नेमिचन्द्रजी वकील के सहयोग के प्रति आभार प्रकट किया है और लिखा है स्थितिबन्धका अन्तिम कुछ भाग अवश्य ही उन्होंने देखा है और उनके सुझावोंसे लाभ भी उठाया गया है। आशा है कि भविष्य में इस सुविधाके प्राप्त करनेमें सुधार होगा और उनका आवश्यक सहयोग मिलता रहेगा । वास्तवमें करणानुयोगका वास्तविक पारखी उनकी ही परख कर सकता है । हमने तो जो कुछ पढ़ा और समझा है उसके आधारपर इतना ही कह सकते हैं कि इस क्षेत्र में पण्डितजीका योगदान सचमुच महान् और गौरवपूर्ण है। वर्तमान और भावी पीढ़ी जिनवाणी सेवाके इस पुण्य कार्यको इस समय तथा आगे सदा-सदा याद करती रहेगी।
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