Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 647
________________ ६०८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ९. आदर्श प्रतिमें कहीं संशोधन रूपमें शुद्ध प्रयोग लक्षित हुए और कहीं अशुद्ध ही रह गये, उन सबमें एकरूपता स्थापित की गई। . १०. वाक्य या शब्दकी पूर्ति बिन्दु रखकर की गई है । आवश्यकताके अनुरूप पूर्ति की गई है। जयधवलाके अनुवाद कार्यकी भी अपनी विशेषता है । भाषा सरल होनेपर भी विषयके अनुरूप है। विशेष रूपसे विशेषार्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इन विशेषार्थोंमें जबतक सिद्धान्तका सम्यक अध्ययन न हो, तबतक विषय के सामान्य सूत्र सझमें नहीं आते । जैसे कि “जयधवल" की आठवीं पुस्तकके छठे अधिकारमें यह कहा गया है-“वह शेष इक्कोस प्रकृतियोंका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है।" इसे विशेषार्थमें इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-"सूत्र में यह बतलाया है कि जो मिथ्यात्वका संक्रामक है वह कदाचित् अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क आदि २१ प्रकृतियोंका संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक । जब तक इन इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम नहीं होता तब तक संक्रामक है और उपशम हो जानेपर असंक्रामक है। इसपर यह शंका हुई कि जो द्वितीयोपशमसम्यग्दष्टि २१ प्रकृतियोंका उपशम करता है उसके दर्शनमोहनीयत्रिकका भी उपशम रहता है, अतः जैसे उसके २१ प्रकृतियोंका संक्रप नहीं होता वैसे मिथ्यात्वका भी संक्रम नहीं होना चाहिये, इसलिए मिथ्यात्वका संक्रामक उक्त २१ प्रकृतियोंका असंक्रामक भी है यह कहना नहीं बनता है। इस शंकाका जो समाधान किया है, उसका भाव यह है कि दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका उदयमें न आना यहीं उनका उपशम है, अतः उनका उपशम रहते हुए भी संक्रम बन जाता है। इसलिए चूर्णिसूत्रकारने जो यह कहा है कि 'जो मिथ्यात्वका संक्रामक है वह शेष २१ प्रकृतियोंका कदाचित् संक्रामक है और कदाचित् असंक्रामक है' सो इस कथनमें कोई बाधा नहीं आती है । आशय यह है कि उपशमनाके विधानानुसार २१ प्रकृतियोंका सर्वोपशम होता है, किन्तु तीन दर्शनमोहनीयका उपशम हो जानेपर भी उनका यथासम्भव संक्रम और अपकर्षण ये दोनों क्रियाएँ होती रहती है, अतः उक्त कथन बन जाता है।" इस प्रकार प्रकरण व सन्दर्भके अनुसार अनेक सूत्रोंका स्थान-स्थानपर स्पष्टीकरण किया गया है । उसके बिना अनुवाद मात्रसे कुछ समझमें नहीं आता । कहीं-कहीं विषयका स्पष्टीकरण करनेके लिए तुलनात्मक करणसे सम्बन्धित तथ्यकी व्याख्या की गई है। उदाहरणके लिए, कालानुग क्रमकी दृष्टिसे कहा गया है-'उपशम सम्यग्दृष्टियोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अतः यहाँ सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिका काल उक्त प्रमाण बतलाया है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका भी जानना चाहिए। किन्तु सासादन सम्यग्दृष्टियोंका जघन्य काल एक समय है । अतः यहाँ जघन्य काल एक समय बतलाया है। उत्कृष्ट काल पूर्ववत् है। कार्मणकाययोग और अनाहारक जीवोंका सर्वदा काल है। यही बात औदारिकमिश्र की है । अतः यहाँ सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंका काल औदारिकमिश्रके समान बन जाता है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थिति वालोके कालमें विशेषता है। बात यह है कि एक जीवकी अपेक्षा कार्मणकाययोग और अनाहारक अवस्थाका उत्कृष्ट काल तीन समयसे अधिक नहीं है और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता वाले जीव असंख्यात होते हुए भी स्वल्प है । अब यदि उपक्रम कालकी अपेक्षा विचार किया जाता है तो यहाँ आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक काल नहीं प्राप्त होता । अतः यहाँ दोनों प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थिति वालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आबलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है।" .. उक्त विशेषार्थमें विभिन्न अपेक्षाओंसे विचारकर आचार्यके भावका स्पष्टीकरण किया गया है जो निःसन्देह सैद्धान्तिक समीक्षाकी दृष्टिसे आगम अनुकूल तथा प्रकरणोचित है। इसी प्रकारसे प्रकरणके अन्तर्गत जहाँ संक्षेपमें किसी प्रश्नका संकेतकर उसका समाधान किया है ( मूल में ), वहीं अनुवादमें 'शंका' तथा 'समा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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