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चतुर्थखण्ड : ६०१ इंजक्शन लगाने न लगानेके विवादने सबको आ घेरा । जनता इंजक्शन लगाकर चीरा लगाया जाय इस पक्ष में न थी । पूज्य श्री के सामने भी यह प्रश्न उपस्थित हुआ । वे बोले - भैया ! इतनी चिन्ता क्यों करते हो। मैं स्वयं इंजक्शन लेकर चीरा लगवानेके पक्षमें नहीं हूँ । तब कहीं जनताने संतोषकी साँस ली ।
टीकमगढ़ से डाक्टर बुलाया गया । फोड़ा देखकर उसने कहा कि महाराजजी बिना इंजक्शन लगाये चीरा लगाना सम्भव नहीं है । किन्तु पूज्य श्रीने उसे समझाकर कहा - भैया ! आप चिन्ता क्यों करते हो, आप निर्द्वन्द्व होकर अपना काम करो । मेरे कारण आपको चीरा लगाने, उसे साफ करने और मलहम पट्टी करन में कोई दिक्कत नहीं होगी । बहुत समझाने-बुझानेके बाद उसे तैयार किया जा सका ।
पूज्यश्रीको भीतरके एक कमरे में पट्टेपर ओंधा लिटाया गया । मात्र मैं और स्व० श्री लाला राजकृष्णजी सम्हाल के लिये वहाँ रह गये और सबको अलग कर दिया गया । मैं पैरोंको सम्हाल रहा था और श्री राजकृष्णजी ऊपरी भाग को। डाक्टरने फोड़को साफ कर नस्तर लगाया । दुर्गन्धमय पू का फुव्वारा फूट पड़ा । फोड़ेने लगभग चार अंगुल गहरा स्थान बना लिया था । घेरा ६ इंचसे कम न होगा । इतना बड़ा फोड़ा होते हुए भी सजीव शरीरमें चीरा लगाया जा रहा है यह अन्दाज लगाना कठिन था । समाधिस्थ पुरुषकी जो स्थिति होती है उसी स्थितिमें पूज्य श्रीने स्वयंको पहुँचा दिया था । न हाथ हिले, न पैर हिले और न शरीरका शेष भाग ही हिला । ओंठ जैसे प्रारम्भ में बन्द थे, अन्त तक उसी तरह बन्द रहे आये । लगभग इस पूरी क्रियाको सम्पन्न करने में २०-२५ मिनट लगे होंगे । पर जो कुछ हुआ सब एक साँसमें हो गया। डाक्टरको आश्चर्य हो रहा था कि ऐसा भी कोई पुरुष हो सकता है ? सब क्रिया सम्पन्न कर अन्तमें जाते हुए वह कहने लगा-ये पुरुष नहीं, महापुरुष हैं । मुझे ऐसे महापुरुषकी यत्किचित् सेवा करनेका सुअवसर मिल सका, मैं धन्य हो गया । मेरा डाक्टरी करना आज सफल हुआ । मैंने आज जो पाठ पढ़ा है वह जीवन भर याद रहेगा ।
ललितपुर चातुर्मास समयका वर्णीजयन्तीका नजारा भी देखने लायक था । न भूतो न भविष्यति ऐसा वह महोत्सव था । गजरथ जैसे महोत्सवके समय जो जनसंमर्द दृष्टिगोचर होता है वही दृश्य वर्णीजयन्तीके समय दृष्टिगोचर हो रहा था । पूज्य श्री बुंदेलखण्डकी जनता के लिए देवतास्वरूप रहे हैं । उस दिन उसने उसी भावनासे उनके श्री चरणोंमे श्रद्धा सुमन अर्पित किये ।
पूज्यश्री के जीवन सम्बन्धी ऐसे उल्लेखनीय प्रसंग तो बहुत हैं । तत्काल मुझे एक ही प्रसंगका और उल्लेख करना है जो उनके अन्तिम जीवनसे सम्बन्ध रखता है । अन्तिम दिनोंमें पूज्य श्रीका चलना-फिरना बन्द हो गया था । वाचा ने अपना सूक्ष्मरूप धारण कर लिया था । इतना सब होनेपर भी पूज्यश्रीकी दृष्टि, श्रवण और स्मरण शक्ति बराबर उनका साथ दे रहीं थीं। जिस शारीरिक वेदनामें पूज्यश्रीके अन्तिम दिन व्यतीत हुए उसमें शायद 'कोई अपनेको स्थिर रखने में समर्थ होता । किन्तु उन धीर-गम्भीर महापुरुषकी बात निराली थी। उनकी आन्तरिक वेदनाको वे ही जानते थे । पर उन्होंने अपनी वाचिक या कायिक किसी भी चेष्टा द्वारा दूसरों पर उसे कभी भी प्रकट नहीं होने दिया । जब उनसे मुनिपद अंगीकार करने के लिये निवेदन किया गया तब उनके पिछी ग्रहण करनेके लिये यत्किचित् हाथ उठे और मुखसे अस्पष्ट ये शब्द प्रस्फुटित हो उठे - आत्मा ही आत्माके लिये शरण है और पूर्णरूपसे परिग्रह राहत होकर पूज्यश्रीने अपनी इहलीला समाप्त की ।
वे ऐसे महापुरुष थे, जिनकी शताब्दि - महोत्सवकी पुण्यबेलामें पुण्यस्मृतिस्वरूप श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए हम सब यही भावना करें कि जिस निष्काम भावसे वे अपने कर्तव्य पथपर अग्रसर होते रहे, उनके द्वारा बताये गये उस मार्गपर चलनेका हमें भी बल प्राप्त होवे ।
मैं स्वयं तो पूज्यश्री को अपने जीवनदाताके रूपमें स्मरण करता हूँ और जीवन भर स्मरण करत रहूँगा, यही मेरी उस महान दिवंगत आत्माके प्रति श्रद्धांजलि है ।
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