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मंगलस्वरूप गुरुजी
अपनी शिक्षा समाप्त कर मोरेनाके जैन सिद्धान्त विद्यालयको छोड़े मुझे चालीस वर्षसे अधिक हो गया है। फिर भी मातृस्वरूप उस शिक्षा संस्थाका स्मरण होते ही चत्तमें विलक्षण सुखकी अनुभूति होने लगती है ।
मैंने अपने जीवनमें यदि कोई संस्था देखी है तो वह मोरेनाका जैन सिद्धान्त विद्यालय ही है जहाँ सब प्रकारको व्यवस्था होते हए भी शास्य-शासक भावका सर्वथा अभाव था । शिक्षागुरु और स्नातक सब स्वयं स्फूतिसे अपने-अपने कर्तव्यका समुचित रीतिसे पालन करते थे। वहाँ अनुशासन जीवनका अंग बना हुआ था, अनुशासन सिखाना नहीं पड़ता था। ऐसा उदात्त-मुक्त वातावरण मैंने अभी तक अन्य किसी भी जैन शिक्षा संस्थामें नहीं देखा।
उस समय जो गुरुजन थे वे सभी अपने-अपने विषयके निष्णात विद्वान् थे। उनके निमित्त उन सब विद्वानोंका जीवन बना है जिन्होंने उनके पादमूलमें बैठकर शिक्षा प्राप्त की है।
स्वर्गीय श्रद्धेय पं० खूबचन्दजी शास्त्री संस्थाके मंत्री थे। वे सभी स्नातकोंके प्रति पुत्रवत् स्नेह करते थे । उनके सम्बन्धमें स्वयं अनुभवी हुई एक घटना मुझे आज भी याद है। उसे भूलना सम्भव भी नहीं, क्योंकि उससे मुझे शिक्षा तो मिली ही, मार्गदर्शन भी प्राप्त हुआ।
दशलक्षण पर्वके दिन थे। प्रतिदिन श्री जिनमन्दिरमें दोनों समय शास्त्र प्रवचन रखा गया। स्वयं पण्डितजी प्रवचनके समय नियमसे उपस्थित रहते थे। उपस्थित जनता चाहती थी कि शास्त्र प्रवचन वे स्वयं करें। किन्तु उन्होंने एक दिन भी शास्त्र प्रवचन स्वयं न करके मझे वह कार्य करनेको लगाया। था कि यह शिक्षा संस्था है, यहांकी प्रत्येक प्रवृत्ति ऐसी होनी चाहिए जिससे हमारे स्नातक योग्य शिक्षक और धर्मोपदेष्टा बनें । उनपर उपस्थित जनता बहुत नाराज होती रही, पर उन्होंने उसकी चिन्ता नहीं की। शिक्षा और उपदेशके क्षेत्रमें जो कुछ उन्हें देना था वे इस क्रियाके द्वारा मुझे दे गये। वे आज हमारे बीच में नहीं है, पर उनकी यह परिणति सबके लिए मार्गदर्शक है ।
श्री पं० मनोहरलालजी शास्त्री भी उस समय वहीं निवास करते थे, वे बड़े भद्रपरिणामी थे । यदाकदा मैं उनके पास जाता रहा। आजीविकामे आत्मनिर्भर बननेसे ही विद्या स्फुरायमान होती है यह मैंने उन्हींसे सीखा है।
यद्यपि आज मोरेना विद्यालयका वह स्वरूप तो नहीं रहा। उस समय मैंने वहाँ एक विशेषता और देखी । वह यह कि वहाँके प्रबन्धक वर्गमें विद्वानोंकी ही प्रमुखता रही है। मेरी उपस्थितिमें एक बार प्रबन्ध समितिका अधिवेशन हुआ था। मैंने उसमें आये हुए श्रेष्ठिवर्गको मुँह ताकनेवाला ही पाया। यह उक्ति है तो कटक, परन्तु किसी भी शिक्षासंस्थामें प्राधान्य शिक्षासंस्थाके अनुरूप उन्हों शिक्षा विशारदोंका ही होना चाहिए, जिनके कारण वह शिक्षासंस्था कहलानेकी अधिकारिणी होती है। उसमें अर्थका प्राधान्य होते ही शिक्षकोंमें चाटुकारी आये बिना रह नहीं सकती। ऐसा ही इनमें कार्य-कारणभाव है।
यहाँ आनेके पूर्व मैं श्री महावीर दि० जैन पाठशाला साढू मलका स्नातक रहा हूँ। मध्यमा तककी शिक्षा मैंने वहींपर स्व० पूज्य पं० घनश्यामदासजी न्यायतीर्थ आदि शिक्षा गुरुओंके पादमूलमें पाई है। पूज्य पं० घनश्यामदासजी व्युत्पन्न और स्वाभिमानी शिक्षा विशारद विद्वान् थे । मुझमें जो यत्किचित् व्युत्पत्ति है यह उन्हींकी देन है।
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