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सेवाव्रत
'सेवा' करना सरल है पर 'सेवाव्रत' साधनाकी वस्तु है । पेटके लिए नौकरी-चाकरी करनेवाले असंख्य लोग हैं। ये उचित अनुचितका विवेक किये बिना मात्र अपने तुच्छ स्वार्थकी सिद्धिके लिए 'जी-हजूरी' करते रहते हैं। इन पेटपालू लोगोंको सेवाव्रती नहीं कहा जा सकता क्योंकि सेवाका जो आनन्द और अहिंसाकी भूमिका है वह इन आत्मविस्मृत जीवोंको प्राप्त नहीं है।
सेवाधर्म और सेवाव्रतकी भावना उस उच्च मानवतामें पनपती है जहाँ अपने आत्मत्वका दायरा विस्तृत विस्तृततर और विस्तृततम होता जाता है । हम अपने बच्चोंको प्यार इसलिए नहीं करते कि वे बच्चे हैं, किन्तु 'अपने' है । दूसरेके बच्चेको तांगेसे कुचल जाने पर भी हम लापरवाहीसे बिना किसी अनुकम्पनके चले जाते हैं, यदि उसकी जगह 'अपना' बच्चा होता तो हमारे होश ही गायब हो जाते और ऐसी बेचैनी पैदा होती जिसे दूर करनेके लिए यदि अपनेको मिटाने तकका अवसर आता तो भी पीछे नहीं हटते। यह अनुकम्पा (कॅपते हुए को देखकर हृदयमें कँपकँपी उत्पन्न होना) सच पूछा जाय तो स्वयं कँपकँपी बेचैनी मिटाने के लिए ही की गयी है। पर होती तभी है जब सामनेवालेमें 'आत्मसमत्व'की बुद्धि हो। तो, अपने बच्चेको उठानेकी भावना इसलिए हुई कि 'अपना' है । यह जरूरी नहीं है कि प्रत्येक मनुष्यमें यह स्वाभाविक ही हो। ऐसे भी निकृष्ट स्वार्थियोंकी कमी नहीं है जो अपने बच्चों की आँख बचाकर रसगुल्ला गप्प कर जाते हैं, और ऐसे ही नरपशुओंके मुँहसे यह श्लोक नीति (!) का रूप लेकर निकला है
"आपदर्थे धनं रक्षेत् दारान् रक्षेत धनैरपि ।
आत्मानं सततं रक्षेत् दारैरपि धनैरपि ॥" अर्थात् आपत्ति के लिए धन बचावे। धन देकर स्त्रीकी रक्षा करे। पर अपनी रक्षा धन और स्त्री दोनोंसे करे।
नारी जाति और धनका ठीकरा दोनों इन नरराक्षसोंके बराबर है। ऐसे ही नरराक्षस पुरुषोत्तम रामको भी यह सलाह देने पहुंचे थे कि-'जाने दीजिए एक सीताको, हजार सीता मिल जायेगी। एक स्त्रीके लिए इतनी परेशानी और युद्ध क्यों ?' पर, अहिंसा और कर्तव्यको जीवन्तमूर्ति रामने उस समय यही कहा था, मुखों, यह सीताका प्रश्न नहीं है, यह आत्माका प्रश्न है। मानवता और कर्तव्यका प्रश्न है। यदि सीताकी रक्षाके लिए त्रैलोक्य और अन्ततः अपना भी बलिदान करना पड़े तो भी राम करेगा। जीवित रहकर आत्महत्या, आत्मपराभव और मानवताका निर्दलन राम नहीं देख सकता। जिन्हें इसके प्रति जीवन्त श्रद्धा हो वे हमारे साथ रहें, दूसरे खुशीसे चले जायें। आज 'राम'का नाम उसी कर्मनिष्ठा और अहिंसाका प्रतीक बन गया ।
तात्पर्य यह कि सेवाव्रतके लिए हमें अपने 'आत्मत्व' के दायरे की पुत्र, स्त्री, परिवार, नगर, प्रान्त और देशके छोटे-बड़े दायरोंको पार कर क्रमशः निरुपाधि मानवता तक बढ़ाना होगा। इतना ही नहीं पशुजगत और प्राणिमात्र तकको हमें अपने आत्मौपम्यके पुण्यसागरमें समाना होगा। भीतरके संकुचित स्वार्थका
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