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चतुर्थ खण्ड : ५९५ शिष्योंको अनुपयोगी बताया था जिसका परिणाम यह हुआ कि पीछे प्रत्येक भावनाने क्षणिकवाद शून्यवाद नैरात्म्यवाद आदि वादोंका रूप ले लिया और आत्मा लोक आदिके सम्बन्धमें आज भी कोई निश्चित तत्वज्ञान नहीं मिला । अतः ऐसा तत्वज्ञान और विवेक हमें पहले प्राप्त करना होगा जिसके आधारसे शान्ति और मुक्तिकी भूमिका तैयार की जा सके और जिसकी भावनासे अपने जीवनको भावित कर भावनाको भवनाशिनी साबित कर सकें।
विपरीत मत वालोंके प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना तो उचित है पर विपरीतता और अविपरीतताका विवेक तो हमें करना ही होगा। परस्पर विरोधी दो या अनेक धर्मोमेंसे अविरोधी सामान्य तत्व ढंढना जुदी बात है पर उनकी वे विशेषताएँ जिन पर कि उनकी भिन्नता कायम है, दृष्टिसे ओझल नहीं की जा सकतीं। यद्यपि अनेकान्तदर्शन और स्याद्वादने वस्तुस्थितिके आधारसे विभिन्न मतवादोंके निरीक्षणका प्रयत्न और उनके समन्वयको साकार रूप देनेका अद्वितीय प्रयास किया पर उसने वस्तु स्थितिका उल्लंघन कर कल्पित काम चलाऊ समन्वय नहीं किया । जो धर्म वस्तु में नहीं है उनसे इनकार किया। आचार्य हरिभद्र आदिने भी बौद्ध और सांख्योंका खण्डन किया पर उनके प्रति आदर भाव रख कर, उनकी नियत पर आक्षेप न करके । एक वैद्यको रोगीके हितकी कामना रहने पर भी औषधि विषयक विपर्यास हो सकता है। अतः केवल भावना ही नहीं विवेककी परम आवश्यकता है।
आदरणीय प्रो० बेचरदास जी दोशीका केवली कौन' लेख हम इसी अंकमें प्रकाशित कर रहे हैं। 'केवलज्ञान या सर्वज्ञता हो सकती है या नहीं' यह विषय गम्भीर पर्यालोचनकी अपेक्षा करता है । उन्होंने जो सबके प्रति आदर भाव, परस्पर मैत्री, कटुताका अभाव आदि अहिंसक निष्कर्ष निकाले हैं उनसे सहमत होकर भी हम मतवादोंके विवेकज्ञानको गौण स्थान पर नहीं रख सकते । सम्यग्दर्शन हमें वैनयिकवृत्तिसे आगे ले जा कर विज्ञान ज्योतिमें खड़ा करता है और उनके यथार्थ बोधकी प्रेरणा देता है।
___ मतका अहंकार बुरा है विवेक बुरा नहीं । यह ठीक है कि अपने अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावके अनुसार हितबुद्धिसे उन मतोंकी प्रवृत्ति हुई होगी और हमें उन्हीं द्रव्यकाल क्षेत्र भावकी परिधिमें बैठ कर ही उन मतोंकी उपयोगिताको आंकना चाहिए पर आज की द्रव्य क्षेत्र काल भावकी परिस्थितिमें हमें कोई एक या कुछ एक तो चुनने ही होंगे । इतना ही विवेक है और यही सम्यग्दर्शन है।
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