________________
चतुर्थ खण्ड : ५९३ और वीररागताकी पुण्य-ज्योतिको महावीरने अपने जीवनमें जलाया था उसे हम बराबर 'ज्योतिसे ज्योति जले' के अमर नियमानुसार कायम रखेंगे और अपने जीवनसे विषमताओंको हटाकर मानव समत्व और अन्तः सर्वभूत महामैत्री अमृत आलोक फैलायेंगे । और महावीरके जीवन कालका वर्ष समाप्त कर अपने कन्धोंपर आये हुए सांस्कृतिक भारको उल्लास पूर्वक सम्हालनेके लिए नव-वर्षका आरम्भ कर रहे हैं।
हम उन्हींकी सन्तान दीपक जलाते हैं, लक्ष्मीपूजन करते हैं, नव-वर्षका आरम्भ करते हैं पर उनकी अहिंसा ज्योतिको भूल गये । उस महावीर प्रभुका नाम लेकर ही शूद्रोंके मन्दिर प्रवेशका विरोध करते भी नहीं लजाते । जिस परिग्रह पिशाचसे पिंड छुड़ाकर वह ज्ञातृकुलका राजकुमार अपनी भरी जवानीमें निर्द्वन्द्व स्वतन्त्र और बाहर भीतरकी सब गाँठे खोलकर परम निर्ग्रन्थ बना उसी परिग्रह-पिशाचके आवेशोंमें अनेक प्रकारके ऊटपटांग नाटक करते हैं और धर्मके क्षेत्रमें उसी परिग्रहका प्रदर्शन कर उसीकी महत्ता स्थापनकर धर्मकी, महावीरकी और आत्माकी विडम्बना कर रहे हैं। जिस जन्मना वर्णव्यवस्था जाति-पाति आदिकी भेदक हिंसामय दीवालोंसे ऊपर उठकर उस सन्मतिको सब मनुष्यों को ही नहीं पशु-पक्षियों और जीव-मात्रको समान रूपसे बैठने के लिए समवशरण (समानतासे-समतासे बैठनेकी धर्म-सभा) बनाया गया था आज उसी समवशरणके प्रतीक मन्दिरोंमें हमने अनेक प्रकारके निषेध लगा रखे हैं, और बोलते हैं 'महावीरकी जय' । धिग् व्यापकं तपः।
___दीपावली हमें वही ज्योति देने आई है यदि हमारी विवेककी आँखें खुली हों। वह प्रतिवर्ष आती है-और कहती है-उत्तिष्ठत, जाग्रत-उठो, जागो और इस दिन महाप्रभुके अन्तिम उपदेश 'समयं गोयम मा पमायए' गौतम, क्षण भर भी प्रमाद न कर, पुण्य सन्देश देती है।
हमें वह ज्योति मिले, हमारा वह नवोदय हो जिससे उस पुण्य पुरुषके समतामय समयसारसे जीवनको शम और सममय बनावें और श्रमसे स्वावलम्बनकी ओर बढ़े।
nirm
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org