Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 631
________________ भावना और विवेक भावना मनकी लहर है और विवेक वस्तुका यथार्थ विज्ञान | भावना सत्य हो सकती है परतथ्य ही नहीं। भक्तको अपनी भावनावश आँखोंके चारों ओर भगवान् ही भगवान् दिखाई देते है। इसीलिए तो कहा जाता है कि भगवान्के दर्शनके लिये भक्तकी भावनामयी आँखें चाहिए । पर विज्ञानको प्रयोगशालामें तो हाइड्रोजन और आक्सीजनसे ही पानी बन सकता है। नियत कार्यकारण भाव और पदार्थ स्थितिकी उपेक्षा यहाँ नहीं हो सकती । भावनासे कविता हो सकती है और उसके श्रवण मनन और निदिध्यासनसे व्यक्तिकी मुक्तिभी हो जाय पर यथार्थ विज्ञान और वस्तु व्यवस्था विवेक या विज्ञानसे ही हो सकती है। विवेकका सूर्य किसी भी कोनेमें अन्धकार नहीं रहने देना चाहता । भावना भवनाशिनी भी हो सकती है, पर यदि उसे विवेकसे ज्योति न मिले तो उसके भवपातिनी भी होने में सन्देह नहीं है। सर्वधर्म समभाव बहुत सुन्दर लगने वाली भावना है और विभिन्न मत वाले देशमें बुद्धि भेद और मतभंदके व्यावहारिक समाधानका एक अच्छा रास्ता भी है । यद्यपि 'अनेकान्त दर्शन' ने वस्तुके विराट स्वरूपके आधारसे वस्तुमें अनेक विरोधी धर्मोंका समन्वय किया है, पर इसने काल्पनिक मतवादोंके वस्तु-स्थिति-विहीन समन्वयका प्रयास नहीं किया। इसने वस्तुमें जो अनेक विरोधी धर्म हैं उनको दिखा कर यह बताया कि विभिन्न दष्टिकोणोंसे वस्तु अनन्त धर्मोंका आधार है, उनमें विरोधी भी धर्म हैं । परन्तु संघ रचना और धर्मका स्थायी आधार वे ही तत्त्व हो सकते हैं जिनसे व्यक्तिकी मुक्ति और समाजमें स्थायी शान्ति हो सकती है। उन्हीके समन्वयसे ही हम उन्नतिका द्वार खोल सकते हैं । वस्तु स्थितिसे विरुद्ध धर्मोके समन्वयका प्रयास स्थायी कल्याण नहीं कर सकता । उदाहरणार्थ हम ईश्वरकर्तृत्व और व्यक्तिस्वातन्त्र्यको ले लें। ईश्वरवादी जन्मसिद्ध ऊँच नीच व्यवस्था और अनन्त पदार्थोंपर प्रभुसत्तामें विश्वास करते हैं और उसका समस्त मतवाद शास्त्र पडित प्रचार आदि वर्ग संरक्षणको ध्रुवकील पर घूमता है जब कि द्रव्यस्वातन्त्र्यवादी प्रत्येक द्रव्यको अपने में परिपूर्ण और स्वतन्त्र मानता है । वह एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यपर नैसर्गिक अधिकार नहीं मानता है । प्रभुसत्ता ही इसके मतसे मिथ्यात्व और हिंसा है, अनधिकार चेष्टा है, चाहे वह जन्मसिद्ध हो या कर्मसिद्ध । यह तो सहयोगमूलक गुणसिद्ध व्यवस्था पर विश्वास करता है। अब इसका समन्वय कीजिए । एक और प्रभुसत्ता है और दूसरी ओर व्यक्तिकी स्वतन्त्रता । एक ओर ईश्वर, उसका प्रतिनिधि राजा, उसके सर्वोच्च अंगसे उत्पन्न होने वाला और अपनेको सर्वश्रेष्ठ मानने वाला यज्ञजीवीवर्ग और दूसरी ओर स्वभावसिद्ध सृष्टि, सहयोग पद्धतिसे चुनी हुई गणतन्त्रीय व्यवस्था, गुण कर्मानुसार आजीविकाके लिये स्वीकृत वर्णव्यवस्था और सबको समान अवसर। इस ईश्वरवादमेंसे एक भावना तो निकाली जा सकती है कि-'हम सब एक ही ईश्वरको सन्तान है अतः हमें परस्पर भाईचारेसे रहना चाहिए।" पर इसके तत्वज्ञानका पाया वर्गस्वार्थका ही पोषण करता है और पदार्थोंको परावलम्बनके मुंहमें ढकेल देता है। इसलिये आवश्यकता विवेक की है। हमारी भावनाको ज्योति देने वाला तत्वज्ञान यथार्थ हो वस्तुस्पर्शी हो । भावनाओंसे तत्वज्ञान निष्पन्न न हो किन्तु तत्वज्ञानकी ज्योतिसे भावनायें अनुप्राणित हों । बुद्धने 'जगत् क्षणिक है, अनित्य है, शून्य है, निरात्मक है, अशुचि है ये भावनाएँ भाई थीं, और आत्मादिका तत्वज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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