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५८८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
विभिन्न वातावरण और परिस्थितियोंके अनुसार भिन्न-भिन्न संस्कारवाले हो जाते हैं । जो छोटा-मोटा अन्तर भी होता है वह इतना बद्धमूल नहीं होता कि उसमें शिक्षा संगति और वातावरणसे बदल न हो सके । जैन परम्पराने उस अन्तरको इतना बड़ा तो माना ही नहीं है कि वह मानव समानाधिकारमें बाधक बन सकता हो । फिर, अनादि कालसे आज तक किसी एक परम्पराकी शुद्धता में विश्वास किया जा सकता है ? ऐसी दशामें जातिकी श्रेष्ठताका ढिंढोरा पीट कर भारतकी अखण्ड राष्ट्रीयताको छिन्न भिन्न करना अपनी संस्कृतिका ही घात करना है । पहिले गाँव पेशा आदिके नामसे अनेक जाति-उपजातियोंकी सृष्टि हुई थी । उस समय यातायात के साधन कम थे और सबकी अपनी छोटी-सी दुनिया थी । उसी में खानपान शादी-विवाह लेनदेन आदि होता रहता था । पर आजकी दुनिया सबकी एक है । यहाँ सूई पटकिये तो उसकी आवाज उसी समय अमेरिका क्या विश्व के कोने-कोने तक पहुँचती है । अतः हमें अब न केवल भारतीयता किन्तु विश्वमानवताको दृष्टि से विचार करना है । अपनी शक्ति साधन सामग्रीको सीमितता आदिके कारण मुख्यरूपसे अपनी जातिके लोगोंकी उन्नतिमें विशेष लक्ष्य देना उतनी बुरी बात नहीं है, पर जब दूसरी जातिको हीन तुच्छ और नीच समझ कर उसके प्रति घृणाका भाव फैलाया जाता है तब वह 'दुर्जाति' का रूप लेकर 'सत्' की सीमाको लांघ जाती है । जातिका आवरण लेकर शासनकी एकताको ध्वंस करना तो राष्ट्रीय महापाप है ।
शासनकी सुविधा के लिए प्रान्तोंकी रचना होती है । इसकी सीमाएँ बनती - बिगड़ती रहती हैं ! जब देशकी ही सीमा स्थिर नहीं तब प्रान्तकी तो कथा ही क्या ? यह ठीक है कि विभिन्न प्रान्तोंकी संस्कृतियाँ जुदा-जुदा हैं | पर इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि दूसरे प्रान्तकी संस्कृति भाषा आदिके प्रति हीनताका भाव दर्शाया जाए और भारतीयताके क्षेत्रमें अपने प्रान्तके लोगों को भरनेकी चेष्टा करके प्रच्छन्न रूपसे भारतीयता को नष्ट करनेकी कुचेष्टा की जाए। जब एक प्रान्त दूसरे प्रान्तके प्रति घृणा द्वेष और नीचत्वके 'असत्' को प्रश्रय देता है ।
फैलता है तब वह 'सत्' की परिधिसे बाहर हो जाता है और वह
सारांश यह है कि जैन दर्शनके नयवादमें जिस तरह प्रत्येक नयका अपने विषयभूत अंशको मुख्यता देना तो क्षम्य है पर दूसरेका निराकरण या तिरस्कार किसी तरह क्षम्य नहीं है, उसे दूसरे नयके प्रति बन्धुभाव और तटस्थता हो रहनी होती है अन्यथा वह सुनय नहीं, दुर्नय कहलाता है उसी तरह सम्प्रदाय जाति और प्रान्तको भी अन्यके प्रति बन्धुत्व और अपनी मुख्यताके समय दूसरोंके प्रति तटस्थताका भाव ही अपनाने में 'सत्' - पना है अन्यथा ये विषरूप होकर अखण्ड भारतीयताका विनाश ही करते रहेंगे और इस तरह मानव जाति विकासके महान् रोड़े बनेंगे ।
श्रमणधाराके महापुरुषोंने सदासे इनके विष नाश करनेका उपदेश दिया और जीवनमें अहिंसाकी उच्च साधना द्वारा समन्वय सहिष्णुता, उदारता और विशालता का प्रकाश देकर मानव को मानव बनाये रखनेका सतत प्रयत्न किया है ।
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