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५९० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्ग
दमन किये बिना यह भूमिका नहीं आ सकती । अतः सेवाव्रती और सेवाधर्मीको प्रेम, दया, सहानुभूति, संवेदन, सहिष्णता, स्नेह, क्षण, वत्सलता परदुःख-कातरता आदि अहिंसा परिवारको जीवनम विकस कहा है
"सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः" सेवाधर्म परमगहन है, वह योगियोंके लिए भी अगम्य है। अपने लिए कौआ भी जीता है, पर मानव तो वह है जिसके 'स्व' का क्षेत्र अपनेसे आगे भी विस्तृत हआ हो। आज देशके लिए कुछ ऐसे ही सेवकोंकी आवश्यकता है जो सेवा सेवाके लिए करनेवाले हों। स्व० विश्वकवि रवीन्द्रनाथसे किसीने पूछा कि "धर्म किसलिए किया जाय?" उन्होंने कहा कि "यदि धर्ममें भी 'किसलिये' को समाप्त कर धर्म धर्मके लिये, अर्थात् बिना किसी कामनाके किया जाने वाला है। धर्म आत्मानन्द है, वह स्वयं साध्य और साधन है । जिसका सेवाके पीछे कोई अन्य हेतु है वह सेवावृत्ति कही जा सकती है सेवानत या सेवाधर्म नहीं।
आशा है हमारा समाज सेवी और देशसेवी वर्ग सेवाधर्मी और सेवाव्रती बननेका प्रयत्न करेगा।
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