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महावीर जन्म-दिन
२५४८ वर्ष पूर्व आजके ही दिन भगवान् महावीरने वैशालीके कुण्डग्राममें जन्म लिया था। श्रमण परम्परामें यद्यपि सीधा जन्मका कोई विशेष महत्त्व नहीं है क्योंकि यहाँ कोई सर्वशक्तिमान् अनादि सिद्ध प्रभु अवतार नहीं लेता, किन्तु साधारण आत्मा ही अपनी साधनाके द्वारा अन्तरात्मा बन कर अन्तमें स्वरूपस्थित सिद्धात्मा या परमात्मा बन जाता है। इस परम्परामें उसकी वीतरागता, समभावपरिणति, प्राणिमात्रमैत्री अपरिग्रह. तत्त्वज्ञान और अनेकान्तदष्टिका महत्त्व है। इन्हींके कारण वह तीर्थ शास्ता बनता है । कुल, जाति, वर्ण, सम्प्रदाय आदिके संकुचित बाडोंसे तीर्थकरत्वकी कोई विशेषता नहीं । उसका अर्थ तो
श्रेयोमार्गानभिज्ञानिह भवगहने जाज्वलदुःखदाव
स्कन्धे चक्रम्यमाणान् अतिचकितमिमान् उद्धरेयं वराकान् ॥ अर्थात् त्रिविध दुःखकी दावाग्निसे चारों ओर जलने वाले इस संसाररूपी महाभयानक वनमें श्रेयोमार्ग-आत्मस्वरूपको न समझनेके कारण अत्यन्त चकित होकर इतस्ततः भटकने वाले विचारे इन प्राणियोंका आत्मस्वरूप समझा कर उद्धार करूँगा' इस विश्वहितैषिताकी सर्वोदयी भावनामें समाया हुआ है ।
यही कारण है कि महाश्रमण वर्धमानने बाल्यकाल या जवानी में क्या किया इसका विस्तत विवरण शास्त्रोंमें नहीं मिलता । हाँ जबसे उन्होंने समता-अहिंसाकी साधनारूप सामायिकता व्रत स्वीकार किया तबसे उनके इहलोकीय जीवनका एफ-एक क्षण हमारे लिए आदर्श है।
अँगूठेसे मेरुकम्पन हुआ, चण्डकौशिक सर्पको वशमें किया, तथा इन्द्र आकर उनकी सेवा करता था आदि अतिशयोंसे उनके परमात्मत्वकी पहचान नहीं होती। परमात्मत्वकी पहचान तो जो उन्होंने धार्मिक साम्राज्य के उस भीषण युगमें धर्मका प्रत्येक द्वार प्राणिमात्रको जाति, वर्ण, कुल, सम्प्रदाय आदिका कोई बन्धन नहीं मानकर खोला था, उन तिरस्कृत, निर्दलित, शोषित, पीडित, बिलबिलाते मानवोंको गले लगाया था, यज्ञबलिका विरोध करके अहिंसाकी भावना जगाई थी और बुद्धिके पंखों पर आसन जमाने वाली पुस्तककी गुलामी को उखाड़ कर उसे स्वतः विचरनेका उन्मुक्त मार्ग प्रशस्त किया था, उससे होती है।
उन्होंने धर्मके पुनीत क्षेत्रकी ठेकेदारीको समाप्त कर प्रत्येक प्राणीको अपना हित अहित समझनेकी स्वावलम्बी प्रवृत्ति उत्पन्न की थी और वर्ण विशेषको संस्कृत भाषाके कृत्रिम बन्धनोंसे धर्म को मुक्त कर लोक भाषाके द्वारा वे जन-जन तक स्वयं पहुँचे थे। विहार, वर्धमान, वीरभूमि, नाथनगर जैसे उनके नामांकित क्षेत्र आज भी उनकी गुणगरिमाको पुकार-पुकार कर कह रहे हैं।
इस तरह पुराने बन्धनोंको तोड़ कर अपने श्रम और अपनी साधनासे जीवनमें पूर्ण शम और समत्व को प्राप्त कर वे केवली (केवल अकेला, परम स्वावलम्बी) बने । तीस वर्ष तक उन्होंने अहिंसा समता स्वतन्त्रता और शान्तिका उद्बोधन किया।
उनकी इस परमात्मदशाकी प्राप्तिके बाद उनके जन्म दिन उपदेश दिन और निर्वाण दिनकी भी महत्ता प्रस्थापित हुई।
स्वतन्त्र भारतमें आज उस महा-श्रमणकी पुण्य जयन्ती मनाई जा रही है जिसके अहिंसा विश्वमैत्री और मानवसमत्वके आधार पर भारतका वह नवविधान बना, जिसमें जाति, धर्म, लिंग, कुल आदिके आधारसे
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