Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 619
________________ ५८२ : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थं जैन धर्मके व्यापक प्रभुत्वको देख कर हो पहिले वैदिक धर्मको खतरा मालूम हुआ था और उसने यह घोषणा की थी कि "हस्तिना ताड्यणानो पि न गच्छेज्जैन मन्दिरम्' अर्थात् हाथीके पैर के नीचे दब जाना अच्छा पर जैन मन्दिर में जाना उचित नहीं । आज भी हमलोग इस घोषणाका विरोध करते हैं और ऐसी घोषणा करने वालोंको भला बुरा कहते हैं पर स्वयं इस मानव समानाधिकार के अहिंसक युगमें "नेतृभिः प्रेर्यमाणो पि नागच्छेज्जैन मन्दिरम्” अर्थात् जन नेताओंसे प्रेरणा हो नेपर भी जैन मन्दिरमें मत आओ यह धर्मविरोधी, अहिंसा विरोधी और मानवता विरोधी नारा लगानेको तैयार हैं । हमारा सांस्कृतिक तत्त्व यदि कानूससे फलित होता है तो उसे हम धर्म में हस्तक्षेप क्यों मानते हैं । भगवान् महावीरने वर्ण-व्यवस्थाका विरोध सामाजिक क्षेत्रमें उतनी तीव्रतासे न भी किया हो क्योंकि सामाजिक व्यवस्थाएँ व्यवहाराधीन थीं पर धार्मिक क्षेत्रमें तो उन्होंने इस वर्ण व्यवस्थाकी धज्जियाँ ही उड़ा दी थीं । उनके संघमें चांडालका भी वही स्थान था जो किसी ब्राह्मणका । व्रत धारण करनेपर यह सब भेद ही नष्ट हो जाता है । पर आज हमारे सुधारक बन्धु सामाजिक व्यवहारमें अस्पृश्यताका उच्छेद करनेको तत्पर होकर भी धार्मिक क्षेत्रमें उसे कायम रखना चाहते हैं, किमाश्चर्यमतः परम् । मन्दिरप्रवेश शुद्ध धार्मिक प्रश्न है, इसमें वर्णभेदके आधारसे कोई समझौता नहीं हो सकता । वहाँ तो मानव मात्रको सम् भूमिकापर बैठना ही होगा । हाँ, वहाँ जो नियम होंगे वे सभीको पालने होंगे, वहाँ जन्मगत जाति के कारण किसीको विशेष संरक्षण नहीं दिया जा सकता । अतः कमसे कम हरिजन मन्दिर प्रवेश वाले सांस्कृतिक प्रश्नपर जैन हिन्दूके भेदका नारा लगा कर उससे निकल भागनेका प्रयत्न करना न शास्त्रीय है, न सांस्कृतिक है और न सामयिक ही । हमें आश्चर्य होता है जब राष्ट्रीय नेता हमारी समाजको यह कहते हैं कि "भाई, जैन धर्म तो जांति-पांति मानता नहीं है, फिर क्यों आप लोग इस हरिजनोद्वारमें बाधक होते हो" जिस बात को हमें कहना चाहिए था और राष्ट्रीय नेताओंके इस मानवोत्थान के प्रयत्नकी सराहना करके उन्हें सहयोग देना चाहिए था वहाँ हम जैन जैनधर्मको विकृत रूपमें देशके सामने उपस्थित करके मानते हैं कि हमने जैन संस्कृति की सेवा की है । हमारे कुछ दक्षिणी भाइयोंने यह भय उत्पन्न किया है कि इस बिलसे जैन हिन्दू बन जायेंगे और उन्हें वैदिक बन जाना होगा। बैरि० सावरकरके द्वारा की गयी जैन-बौद्ध-सिख संग्राहक 'हिन्दू' की परिभाषा स्वीकार करने में भी उन्हें यही डर है कि जैन लोग वैदिक हो जायेंगे । हमने ज्ञानोदयके चौथे अंकमें ही यह स्पष्ट कर दिया है कि " सावरकर कृत व्याख्या के मान लेनेपर भौगोलिक दृष्टिसे और परम्परागत आर्यत्वकी दृष्टिसे हम हिन्दू होकर भी जैसी कि पं० सुखलाल जी की सूचना है - हिन्दू महासभा के सदस्य हरगिज नहीं बनना चाहते, क्योंकि वर्तमानमें उसका संघटन वर्णव्यवस्था और ब्राह्मण प्रभुत्वके वर्गोच्चत्वको भावनापर है, भगवाध्वज उसी श्रुतिस्मृत्यनुमोदित परम्पराका प्रतीक है । अतः हमारा हिन्दू महासभा के कर्णधारोंसे अनुरोध है कि यदि वे 'हिंदू' शब्दकी उक्त व्याख्या जैनोंसे स्वीकार कराना चाहते हैं तो वैदिक संस्कृतिके प्रतीक भगवाध्वजके स्थानपर सर्वानुमोदित ध्वज स्वीकार करें। उसमें रही वर्गोच्चत्वकी भावनाको दूर कर समान आधारोंसे सर्व संग्राहक संगठन करें ।" जब हम देखते हैं कि हमारे ये बन्धु स्वयं आनखशिख वैदिक वर्ण-व्यवस्थामें डूबे हुए हैं और उसी वर्ण-व्यवस्थाके घृणित अभिशाप रूप अस्पृश्यताको कायम रखनेके असांस्कृतिक उद्देश्योंसे जैनोंको वैदिक बन जानेका भय दिखा रहे हैं । इतना ही नहीं 'ज्ञानोदयकारों' को नीति और धर्मका अन्तर समझने की सलाह दे रहे हैं तो हमारे आश्चर्यका कोई ठिकाना नहीं रहता । 'ज्ञानोदय' ने प्रारम्भमें ही इस प्रश्नको धार्मिक माना है और इसीलिए शास्त्राधारसे इसकी विवेचना की है। और भारतके नव निर्माणके समय जैन धर्मका समुज्ज्वल पतितपावन स्वरूप सामने रखनेका सांस्कृतिक प्रयत्न किया है। यदि हिन्दू शब्दकी मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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