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चतुर्थ खण्ड : ५८३
का संग्रह करनेवाली परिभाषा बनानेका प्रश्न उठता है तो ज्ञानोदय उसका स्वागत करेगा। हमने धर्म गुरुओंसे भी इसीलिए निवेदन किया था और अब भी कर रहे हैं कि वे इस वैदिक वर्ण व्यवस्थाका आग्रह छोड़ कर विशुद्ध मूल जैन संस्कृतिके पुनीत रूपका प्रचार करें । ज्ञानोदयने इस प्रश्नका शास्त्रीय आधार उपस्थित किया ही है । वैदिक धर्मके प्रभावसे अपनी रक्षाके लिए हमें आवश्यक है कि जो बुराइयाँ वैदिकोंके संसर्गवश हममें
हैं उन्हें अविलम्ब दूर करके अपनी संस्कृतिके मूल तत्त्वोंको जीवनमें लाएँ और मानव मात्रके समानाधिकारको स्वीकार कर प्राणिमात्रके प्रति अहिंसाकी उच्च भावनाकी उपासना करें।
सावकरकी परिभाषासे विशाल आर्यसंघ या हिन्दू संघमें शामिल हो जानेसे हम वैदिक नहीं बनेंगे किन्तु हरिजनोद्धार अस्पृश्यता निवारण जैसे जैन तत्त्वोंका विरोध कर अवश्य ही हम सक्रिय वैदिक हो रहे हैं। इस काननके विरोधमें कोई सत्याग्रह (?) करना चाहते हैं तो कोई अन्न त्याग कर रहे हैं, कोई फेडरल कोर्टमें न्याय पानेकी सलाह दे रहे हैं । इन धर्मके ठेकेदारोंकी इस करनीसे जैन धर्म, जैन संस्कृति और जैन समाजका जो अहित होगा उसे भावी पीढ़ी क्षमा नहीं कर सकेगी। सी० पी०में इसके लक्षण दिखने लगे हैं। वहाँ हिन्दू टस्टोंका उपयोग जैन नहीं कर पायेंगे । हिन्द मन्दिर, उनसे लगे हए तालाबों या अन्य जलाशयोंपर जैन नहीं जा सकेंगे । अर्थात् आजका हरिजन तो वहाँ जा सकेगा, पर ये जैन नहीं जा पायेंगे। और धीरे-धीरे यह विष आर्थिक और अन्य सामाजिक क्षेत्रोंमें व्याप्त होकर हमें योग्यताके बलपर जो राजनैतिक स्वत्व प्राप्त हो जाते हैं वे इस बिलगाववादी प्रवृत्तिकी प्रतिक्रियामें समाप्त हो जाएँगे । अतः हमारा स्थितिपालकों और जैन समाजके प्रमखोंसे निवेदन है कि वे शास्त्र संस्कृति और समयको पहिचाननेका प्रयत्न करें और इस नव निर्माणके समय ऐसे बीज न बो दें जिससे भावी समाजका जीवन दूभर हो जाए ।
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