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५६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रवचनसारोद्धारमें कहा है
अरहंत चक्कि केसव बल संभिन्नेय पुव्वा । गणधर पुलाय आहारंग च न दु भविय महिलाण ॥
-प्रवचनसारोद्धार ३ पत्र सं० ५।७।७-५ । अर्थात् महिलाओंको अरहंत पद, चक्री, नारायण, बलभद्र, सभिन्न श्रोता, चारणऋद्धि, पूर्वश्रुत, गणधर, पुलाक, आहारकके पद नहीं होते हैं। इस प्रमाणके आधारपर कहा जा सकता है कि जब महिलाओंके उपर्युक्त पद प्राप्त नहीं कर सकतीं तब तीर्थकर पद प्राप्तिकी कल्पना कैसे की जा सकती है। यह कल्पना तो काफी बादकी प्रतीत होती है। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परामें उपसर्ग, गर्भहरण, स्त्रीका तीर्थकर होना आदि दस अच्छेरग (आश्चय) माने हैं, यथादस अच्छेरगा पण्णत्ता-उवसग्ग गब्भहरणं, इत्थीतित्थं "।
-(स्थानांगसूत्र १०।१६०) पर इस आधारसे भी यह सिद्ध होता है कि उपर्युक्त कल्पना बाद की है, क्योंकि अंगोंकी रचना श्वेताम्बरोंने बादमें की है । इसका विशेष खुलासा लेखमें किया हो है ।
अब आगे समर्थ समाधान भाग २ में स्त्रीमुक्तिके समर्थनमें जो तर्क और प्रमाण उपस्थित किये गये हैं उनके आधारसे विचार करते हैं । उस पुस्तकके पृष्ठ ३२में लिखा है
'भरत और ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी अवसपिणी और उत्सपिणी कालके सुषम-सुषम, सुषम और सुषमदुषम आरेके दो भागोंके और अकर्मभमि क्षेत्रके सभी मनुष्य, मनुष्यनियोंके एक वज्र वृषभ नाराच संहनन ही जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिमें बतलाया है । इसी प्रकार जीवाभिगममें अन्तरद्वीपोंके विषय में भी बतलाया है।'
सो जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और जीवाभिगम सूत्रके उक्त कथनसे यदि उक्त पुस्तकका लेखक स्त्रीमुक्तिकी सिद्धि करना चाहे सो बनता नहीं, क्योंकि भरत और ऐरावत क्षेत्रके सषम-सुषम, सुषम और सुषम-द्र क्रमसे उत्तम भोगभूमि, मध्यप भोगभूमि और जघन्य भोगभूमि ही रहती है, इसलिये इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि उस कालके मनुष्य और मनुष्यिनियों के समान दुषम- सुषम, दुषम और दुषम-दुषम कालके मनुष्य और मनुष्यिनियोंमें भी केवल एक वज्रवृषभनाराच संहनन ही होता है। जब कि दुषम-सुषम कालमें नियमसे छहों संहनन होते हैं और मक्तिगमन भी इसी कालमें सम्भव है। यहाँ मनष्यिनियोंके जो छहों संहनन कहे हैं सो वे ऐसे द्रव्य पुरुषों के ही कहे हैं जिनके स्त्रीवेद नोकषायका उदय पाया जाता है। जो द्रव्यसे मनुष्यनियाँ होती है उनके मात्र अन्तके तीन संहनन ही होते हैं। इस विषयका पोषक प्रमाण हम पहले ही दे आये हैं । अत. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और जीवाभिगम सूत्रसे तो ऐसी मष्यिनियोंके मुक्तिगमन सिद्ध होता नहीं।
आगे उक्त पुस्तकके लेखकने जो यह लिखा है कि 'बिना सुने व सुनकर यावत् केवलज्ञान तक पैदा करनेवालोंका वर्णन भगवती श. ९ उ० ३१ में आया है। उसमेंसे सुनकर केवली होनेवालोंमें स्त्रीवेद भी आया है। उन सभीमें संहनन तो एक प्रथम ही बताया है। अर्थात् तीनों वदवाले चरमशरीरी वज्रऋषभनाराच संहननवाले ही होते हैं । अतः तीनों ही वेदोंमें यह संहनन कायम होता है।'
यहाँ उक्त पुस्तकके लेखकने चरमशरीरी तोनों वेद बालोंका जो वज्रऋषभनाराचसंहनन लिखा है सो इसका निषेध कौन करता है। दिगम्बर परम्परा भी इसे स्वीकार करती है। प्रश्न यह नहीं है कि तीनों वेदोंवाले मोक्ष जाते हैं या नहीं। प्रश्न यह है कि तीनों वेदवाले जो मोक्ष जाते हैं सो यह कथन किस अपेक्षासे बनता है ? वेदनोकषायकी अपेक्षा या आंगोपांग नामकर्मकी अपेक्षा । वेदनोकषायकी अपेक्षा मानने में तो कोई आपत्ति है नहीं । आपत्ति आंगोपांग नाम कर्मकी उदयकी अपेक्षा मानने में है। जिस महिलाके योग्य आंगोपांग
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