Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 598
________________ चतुर्थ खण्ड : ५६१ सो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर यद्यपि महाबलके जीवनमें दोनों बातें बन तो जाती हैं, पर उनका देवपर्यायसे आकर योनि-कुच सहित स्त्री (महिला) लिंगमें उत्पन्न होना नहीं बन सकता, क्योंकि जो सम्यग्दृष्टिजीव स्त्रीवेद सहित भाव स्त्री पर्यायमें उत्पन्न होनेकी योग्यता नहीं रखता वह योनिकुचवाली महिला पर्यायमें उत्पन्न हो जाय यह कैसे बन सकता है । अर्थात् नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि वेद नोकषायकी अपेक्षा उस देवचर महाबलके जीवके वेद नोकषायकी अपेक्षा भले ही पुरुषवेद रहा आवे, पर उसके योनि-कुचवाली महिला पर्यायको लेकर उत्पन्न होनेमें कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि कर्मभूमिके जीवामें वेदवैषम्यके मानने में आगमसे उसका समर्थन होता है। जैसा कि उनके यहाँ ही कर्म शास्त्रका वचन है पुरुषः पुरुषवेदं वेदयति, पुरुषः स्त्रीवेदं वेदयति, पुरुषः नपुंसकवेदं वेदयति । एवं स्त्री नपुंसकयोरपि वेदत्रयो मन्तव्यः। -अभिधान राजेन्द्रकोष महाबल शब्द । जो भावसे पुरुषवेदी है वह द्रव्यसे पुरुष वेदका तो वेदन करता ही है, द्रव्यसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भी वेदन करता है। इसी प्रकार भावसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेद वाले जीवोंके भी जान लेना चाहिये। ____ अतः देवचर महाबलका जीव यदि कर्मशास्त्रके नियमानुसार पुरुषवेद नोकषाय सहित पुरुष पर्यायमें उत्पन्न होता है तो भले ही हो जाओ, पर इससे उसका योनि-कुच सहित महिला पर्यायमें उत्पन्न होनेमें कर्मशास्त्रके अनुसार कोई बाधा नहीं आती। सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसे एक तो आपका (श्वेताम्बर परम्पराका) आगम ही स्वीकार नहीं करता । दूसरे कदाचित् ऐसा मान भी लिया जाय तो चर्णिकारका 'कयाइ होज्ज इथिवेयगेसु वि' यह कहना निरर्थक हो जाता है । । अतः इन दोनों प्रकारको आपत्तियोंको टालनेके लिये यही मानना उचित है कि देवचर महाबलका जीव जब तीर्थकर नाम कर्म सहित मनुष्य पर्यायमें आये तब वे भाव और द्रव्य दोनों प्रकारसे पुरुषवेदको अनुभवनेवाले पुरुष ही थे । न वे स्त्री ही थे और न नपुंसक ही। - यदि कहो कि परभवसे आनेवाला सम्यग्दृष्टि देव पुरुषवेद सहित मनुष्य पर्यायमें ही उत्पन्न होता है, कर्मशास्त्रकी यह मान्यता निरपवाद नहीं है, अन्यथा देवचर महाबलके जीवको द्रव्यसे स्त्रीपर्यायमें नहीं उत्पन्न कराया गया होता । सो इस मान्यताका दोनों सम्प्रदायोंके मूल कर्मशास्त्रसे तो समर्थन होता नहीं। मूल कर्मशास्त्रमें तो मनुष्य पर्यायकी अपेक्षा यही कहा गया है कि अविरत सम्यग्दष्टिके औदारिक मिश्र काययोगमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नहीं होता। चूर्णिकार और टीकाकारोंने अवश्य ही इसके विरुद्ध मार्ग निकालनेकी चेष्टा की है पर सवस्त्र मुक्तिके समर्थनमें स्त्रीमुक्तिकी सिद्धिके लिये ही की गई है। जबकि दोनों सम्प्रदायके ग्रन्थोंसे यह सिद्ध है कि कर्मभूमिकी महिलाओंके अन्तके तीन संहनन ही होते हैं, आदिके तीन संहनन होते ही नहीं। ऐसी अवस्थामें देवचर महाबलके जीवका सम्यग्दर्शन और तीर्थकर नामकर्म सहित महिलापर्यायमें उत्पन्न होना कैसे बन सकता है, अर्थात् नहीं बन सकता। दोनों सम्प्रदायोंकी अपेक्षा कर्मभूमिकी महिलाके अन्तके तीन संहनन ही होते हैं इसका पोषक वह बचन इस प्रकार है अंतिमतियसंहऽणस्सुदओ पुण कम्मभूमिमहिलाणं । आदिणतियसं हणणं णस्थित्ति जिणेहि णिढेिं ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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