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५३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थ क्योंकि बाह्य सामग्रीके बलसे कार्यकी उत्पत्ति स्वीकार करनेपर गेहूँसे चनेकी भी उत्पत्ति माननी पड़ती है किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता, अतः इसका द्रव्यगत कोई अन्तरंग कारण होना चाहिए।
यहाँ केवल भाव प्रत्यासत्तिको तो कार्यका कारण माना नहीं जा सकता, क्योंकि केवल भावप्रत्यासत्ति को कार्यका कारण माननेपर समान आकार वाले समस्त पदार्थों में कार्य-कारणभाव (उपादानोपादेयभाव) प्राप्त होता है । कालप्रत्यासत्ति भी कार्यका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि इसे स्वीकार करनेपर पूर्वोत्तर समनन्तर क्षणवर्ती समस्त पदार्थोंमें कार्य-कारणभाव प्राप्त होता है। देशप्रत्यासत्ति भी कार्यका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि इसे स्वीकार करने पर समान देशवर्ती समस्त पदार्थोंमें कार्य कारणभाव प्राप्त होता है। द्रव्यप्रत्यासत्ति भी कार्यका कारण नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा स्वीकार करनेपर सत् द्रव्यत्व आदि साधारण द्रव्यप्रत्यासत्तिसे भी कार्यकी उत्पत्ति स्वीकार करनी पड़ती है । अतः असाधारण द्रव्य प्रत्यासत्ति और अव्यवहित पूर्व समयवर्ती भाव विशेष प्रत्यासत्ति रूप उपादानको ही अपने उपादेय (कार्य)के प्रति कारण रूपसे स्वीकार करना चाहिए । और इसीलिए परमागममें अव्यवहित पूर्व समयवर्ती द्रव्यको उपादान रूपसे और अव्यवहित उत्तर समयवर्ती द्रव्यको उपादान रूपसे और अव्यवहित उत्तर समयवर्ती द्रव्यको उपादेय रूपसे स्वीकार किया गया है। अतः प्रत्येक समयमें प्रत्येक द्रव्यमें पर्यायरूपसे उत्पाद-व्यय रूप कार्य की प्राप्ति होती है, अतः विवक्षाभेदसे प्रति समय वह स्वयं उपादान भी है और स्वयं उपादेय भी है। अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्यायकी अपेक्षा उपादान भी है और अव्यवहित उत्तर क्षणवर्ती पर्यायकी अपेक्षा उपादेय भी है। यह उपादान-उपादेय स्वरूप कार्यकारण सम्बन्धकी अव्याहत व्यवस्था है। प्रत्येक समयमें जो द्रव्यमें एक परिणामका व्यय होकर दूसरे परिणाम का उत्पाद होता है वह इसी आधार पर होता है। यह सद्भुत व्यवहार नयका वक्तव्य है। जो भी कार्य होता है वह द्रव्यमें अवस्थित अपनी द्रव्य-पर्यायरूप सहज योग्यताके कारण होता है, इसलिए तो इस नयके विषयको सद्भुत कहा है और कारण तथा कार्यमें समय भेद होनेसे उसे व्यवहार कहा है। इस प्रकार उपादान उपादेय भाव सद्भूत व्यवहार नयका विषय है यह निश्चित होता है ।
इस प्रकार सद्भुत व्यवहारनयके वक्तव्यका विचार करनेके बाद अब इसके वक्तव्यके साथ असद्भूत व्यवहारनयके अनुसार कार्य-कारणभावकी युगपत् प्राप्ति कैसे बनती है इसका कतिपय आगम प्रसिद्ध उदाहरणों के आधारसे विचार करेंगे।
[१] परमागममें सर्वत्र किस कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके साथ जीवका औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक कौन सा भाव होता है इसकी जिस प्रकार बाह्य व्याप्ति बतलाई है उसी प्रकार उपादानके साथ आभ्यन्तर व्याप्तिका निर्देश भी दृष्टिगोचर होता है। यथा-१४वें गुणस्थान के अन्तिम समयमें रत्नत्रय परिणामकी पूर्णताको प्राप्त हआ यह जीव सिद्ध पर्याय युक्त जीव द्रव्यका निश्चय उपादान कारण है और अगले समयमें सिद्ध होते समय चार अघाति कर्मोंका क्षय उसका बाह्य निमित्त है । इस प्रकार सिद्ध पर्याय रूप कार्य में बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता एक साथ बन जाती है यह सिद्ध होता है ।
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