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शिक्षा और धर्मका मेल
जैन समाजमें धार्मिक शिक्षण संस्थाओंका सब जगह प्रसार है। धार्मिक शिक्षणके नाम पर समाजका भी बहुत कुछ पैसा खर्च होता है। परन्तु इन संस्थाओंसे निकलनेवाले शिक्षितोंकी मनोभूमिका कैसी रहती है इस ओर बहुत ही कम लक्ष्य दिया जाता है। इसका सबसे प्रधान कारण तो यह है कि इन संस्थाओंका खर्च चलानेवाली समाज ही आज उन संस्थाओंकी मालिक है। इसलिये मालिक और नौकरमें जो व्यवहार होना चाहिये या मालिकका नौकरके साथ आज कल जो व्यवहार चालू है प्रायः इसी भूमिकाको लेकर हमारे शिक्षित तैयार होते हैं। इसलिये जगह-जगह पर शिक्षितोंमें मानसिक दुर्बलता नजर आती है। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे इस बातकी पुष्टि बहुत ही अच्छी तरह होती है। जो शिक्षित इस मनोभूमिकाको छोड़कर काम करते हैं उन्हें सब जगह धक्के खाने पड़ते हैं या उन्हें समाज रचनाकी सबसे निकृष्ट स्थितिमें रहकर अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है। सच पूछा जावे तो धर्मज्ञ विद्वान् इतने आदर्श होना चाहिये जिससे उनका समाजके ऊपर सबसे अधिक प्रभाव रहे। परन्तु यह बात लिखने में जितनी सरल है प्रत्यक्ष व्यवहारमें उसका उपयोग होना उतना ही कठिन है। एक तो समाज ही अपने इस अधिकारको छोड़नेके लिये तैयार नहीं हो सकती है। दूसरे विद्वानोंमें संघ शक्ति निर्माण होकर अपने कर्तव्यका ज्ञान नहीं हुआ है ।
समाजकी इच्छा
इस विषयमें समाज या समाजके नेताओंकी यह भावना रहित है कि आजकल जो कुछ भी थोड़ी बहुत जागृति दिखाई देती है उसका कारण हमारा पैसा है इसलिए हमारी इच्छाके अनुसार काम करना विद्वानोंका कर्तव्य ही है। समाज यह नहीं चाहती है कि विद्वान् स्वतंत्र होकर धर्म और समाजका काम करें और हम निस्पहतासे उनके सहायक हों। कोई भी तटस्थ व्यक्ति, जहाँपर स्थानीय या प्रादेशिक पाठशालायें चालू है-जाकर इस बातका अनुभव कर सकते हैं कि उन पाठशालाओं के अध्यापकोंको समाजके प्रसन्न रखनेके लिये सबसे अधिक प्रयत्न करना पड़ता है । इससे हमारे शिक्षितोंका सबसे अधिक समय या तो चापलूसीमें व्यतीत होता है या अपनी आजीविकाको स्थिर रखनेके लिये उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यसे विमुख रहनेमें ही निकल जाता है । समाजको इच्छा भी इससे अधिक नहीं रहती है । उसको ऐसा विद्वान् सबसे अधिक प्रिय मालूम पड़ता है जो स्वतन्त्रता पूर्वक अपने जीवनको व्यतीत करता है। विद्वानोंकी मनोवृत्ति
अपनी इस जघन्य स्थितिमें समय व्यतीत करने में शिक्षित कुछ कम दोषी नहीं हैं। उनका शिक्षण भी विशाल और उदात्त मनोभूमिकाको सामने रखकर नहीं होता है। कोई व्यक्ति किसी शिक्षणसंस्थामें जाकर रहे तो उसे आजके शिक्षितोंकी मनोभुमिकाका उसी समय पता लग सकता है । वहाँ न तो धार्मिकताके ही पाठ पढ़ाये जाते हैं और न समाजोत्थानके । वहाँ पुस्तकी ज्ञानके रूक्ष वातावरणके अतिरिक्त किसीको और कुछ भी दिखाई नहीं देगा। केवल धार्मिक पुस्तकोंके पढ़ लेनेसे ही धार्मिकता और समाजोत्थानकी भावना जागृत नहीं हुआ करती है इसके लिये एक दूसरे प्रकारके वातावरणकी ही आवश्यकता लगती है जिसका हमारी शिक्षण संस्थाओंमें बिल्कुल ही अभाव है।
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