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अध्यात्म-समाजवाद
भारतको राजनैतिक स्वतन्त्रता मिलनेके बाद जिन परिस्थितियोंका निर्माण हो रहा है उन्हें देखते हुए यह आवश्यक प्रतीत होता है कि हम जैन संस्कृतिके मूल तत्त्वों पर विचार करें और देखें कि वे तत्त्व वर्तमान परिस्थितिको सम्हालनेमें कहाँ तक उपयोगी हो सकते हैं ।
यों तो जैनसाहित्यमें ग्रन्थोंकी कमी नहीं है पर सांस्कृतिक दृष्टिसे जिस पर अधिक दृष्टि जानी चाहिये वह है भगवान कुन्दकुन्दका समयप्राभृत | इस समय वर्गवादमूलक अध्यात्मवाद और भौतिक समाजवादको विफल करनेका हमारे पास एक ही मार्ग है और वह है अध्यात्म समाजवाद । भगवान कुन्दकुन्दने अपने इस ग्रन्थराजमें इसी तत्त्वका सुन्दरतासे निरूपण किया है। सच पूछा जाय तो जैन संस्कृतिकी यह आत्मा है । तत्काल वर्तमान समस्याओं का हल समाजवाद माना जाने लगा है। अधिकतर लोगोंका यह ख्याल होता जा रहा है कि इसे स्वीकार किये बिना सब प्रकारकी बुराइयोंका दूर किया जाना असम्भव है । इसमें सन्देह नहीं कि उनका यह ख्याल बहुत कुछ अंशोंमें सही है, क्योंकि इस समय ईश्वरवाद, वर्गवाद और आर्थिक विषमताने मानवसमाजको इतनी बुरी तरह जकड़ रखा है कि जिससे उसे साँस लेने तकका अवसर नहीं मिलता । इस तन्त्रजालसे किस प्रकार निकला जा सकता है इसका उसे ज्ञान ही नहीं है । ये बुराइयाँ मानव समाजका कोढ़ हैं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं । मार्क्सने धर्मको अफीम कहा है इसका कारण यही है । उसने देखा कि ये बुराइयाँ धर्मके नाम पर प्रचारितकी जाती हैं और जनताको पथभ्रष्ट किया जाता है । ईश्वर तो है ही नहीं । यदि वह होता तो विश्वकी इतनी दुरवस्था क्यों होती ? क्यों हिन्दुस्तान और पाकिस्तान बनते ? क्यों मानव मानवमें इतना अन्तर होता ? क्यों गरीबी और अमरीका भेद होता ? सच पूछा जाय तो मार्क्सने मनुष्यकी बुद्धिपर लगे हुए तालेको खोल दिया है और प्रत्येक मनुष्यको स्वतन्त्र भावसे सोचने का अवसर प्रदान किया है ।
किन्तु उसकी व्यवस्थामें एक दोष है । मार्क्सवाद जहाँ आर्थिक विषमता दूर करनेका प्रयत्न करता है तथा इस व्यवस्था के आधारभूत ईश्वरवाद और वर्गवादको जड़मूलसे उखाड़ फेंकता है वहाँ वह जीबन संशोधनकी बातको सर्वथा भुला देता है । यह तो कट्टरसे कट्टर मार्क्सवादीको भी स्वीकार करना पड़ेगा कि जो भी व्यवस्थाकी जाती है वह मानव जीवनको सुखी बनानेके लिये ही की जाती है । इसके बिना उसका कोई मूल्य नहीं । पर क्या इतने मात्रसे जीवनमें आई हुई भीतरी और बाहिरी सब प्रकारकी बुराइयोंका अन्त हो जाता है यह एक गम्भीर और मार्मिक प्रश्न है जिसका समाधान मार्क्सवादके आधारसे होना कठिन है । इसलिये इसका समाधान पानेके लिये जब हम मार्क्सवादके सिवा अन्यत्र दृष्टिपात करते हैं तो हमारी दृष्टि अध्यात्म-समाजवादके ऊपर जाती हैं । हम देखते हैं कि इसमें मार्क्स के वे सब सिद्धान्त तो निहित हैं ही जिनका उसने केपिटल (Capital) नामक पुस्तकमें विचार किया है। साथ ही उसमें जीवन संशोधनके मूल आधारों और उसकी तात्त्विक प्रक्रियापर भी गहराई से विचार किया गया है ।
अध्यात्म-समाजवादको दूसरे शब्दों में 'अध्यात्म समतावाद' भी कह सकते । इसका व्यापकसे व्यापक अर्थ है जड़ चेतन सबकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करना और कार्यकारण भावको सहयोग प्रणालीके आधार पर स्वीकार करके व्यक्तिकी स्वतन्त्रताको आँच न आने देना ।
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