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५५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ ब्राह्मण चाहे जितने भ्रूणहत्या, चोरी हिंसा आदि निम्नतम पाप करे इससे वह कभी भी ब्राह्मणसे-अब्राह्मण नहीं हो सकता और शूद्र चाहे जितने सदाचार पालन आदि उच्चतम कर्म करे इससे वह कभी भी शूद्रसे अशूद्र नहीं हो सकता।
पर जैन धर्मानुयायियोंने तीर्थंकरोंके उपदेशोंको भुलाकर परधर्मको कैसे स्वीकार कर लिया है यह बात जरा भी समझमें नहीं आती। जैन तत्त्वज्ञान उन्हें क्या आज्ञा देता है यह बात उन्हें आँख खोल कर दे चाहिये। वे चालू व्यवस्थाके व्यामोहमें पड़कर खींझें नहीं किन्तु इसके वास्तविक कारणोंपर जाय । वे देखें कि क्यों हम अपने ही समान एक भाईको छूत और दूसरे भाईको अछुत मानते हैं। एक भाईमें ऐसी कौनसी विशेषता है जिससे वह छूत माना जाता है और दूसरे भाईमें उसकी क्या कमी है जिससे वह अछूत माना जाता है यदि सचमुच में वे अन्तर्दृष्टि होकर देखेंगे तो उन्हें मालूम पड़ेगा कि यह केवल हमारे राग, द्वेष और मोहका
पाक है जो हमसे ऐसा मनवा रहा है। उन भाइयोंमें ऐसी छत और अछतपनेको कोई निसानी नहीं है, दोनों ही समान हैं । यह मालूम पड़नेपर कि यह अछूत है हम ग्लानि करने लगते हैं, परन्तु इसके पहले ऐसा कुछ भी भाव नहीं होता । इसलिये आवश्यकता अपने इन विकारोंको त्यागने की है। इन विकारोंके दूर हो जानेपर यह समस्या सुतरां सुलझ जाती है । हममें वह समानताका भाव आने लगता है जिसकी आज विश्वको आवश्यकता है और जिसका निर्देश हजारों क्या लाखों वर्ष पहले जैन तीर्थंकरोंने कर दिया था। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की थी कि धर्म तो पशुओं तकके लिये है वह मनुष्य-मनुष्यमें अन्तर कैसे कर सकता है ? यही सबक है कि उनकी सभाओं में सबको समानभावसे आने दिया जाता था और सब उनके उपदेशोंसे लाभ उठानेके लिये स्वतन्त्र थे।
कहा यह जाता है कि वे संस्कारहीन है अतः उनके सम्पर्कसे सदाचारके लोप होनेका भय है । पर इस युक्तिवादमें कोई तथ्य नहीं । यह भाव केवल अपने जीवनकी कमजोरीको व्यक्त करनेवाला है। वैसे देखा जाय तो सम्पर्क तो उनके साथ बना हुआ है ही और उसके बिना काम भी नहीं चलता । केवल छूनेका परहेज करके बैठे हैं और ऐसा मान लिया है कि यह न छू ना ही धर्म है। धर्मकी यह कितनी उथली परिभाषा है । जिस धर्मका उपदेश जीवनमें आये हुए विकारको दूर करके अपने स्वभावकी ओर ले जानेके लिये दिया गया था वह धर्म स्वयं विकारीभावमें चरितार्थ हो रहा है । हमने अपने मिथ्या अभिनिवेशके वशीभूत होकर धर्मके स्वरूपकी दिशा ही बदल दी है । इस व्यवहार द्वारा या तो हम रेतमेंसे तेल निकालना चाहते है या रात्रिको दिन बनाना चाहते हैं । और मजा यह कि गालियां देते है मार्क्सवादको। मार्क्सवाद हमारी इन भूलोंका ही तो फल है । यदि हम चाहते हैं कि अध्यात्म-समाजवाद जीवित रहे तो हमें उसके अनुसार अपना जीवन भी बनाना होगा। हमें इस संकुचित मनोवृत्तिको छोड़ कर विस्तृत आधारसे विचार करना होगा।
यदि थोड़ी देरको यह मान भी लिया जाय कि वे संस्कारहीन है तो भी हमारा कर्तव्य उनसे पृथक् रहने का नहीं होना चाहिये। हमें विश्वास और दृढ़ताके साथ उनके जीवनको सुधारनेका प्रयत्न करना चाहिये, उन्हें मन्दिरमें आने देना चाहिये और तीर्थंकरोंके उपदेशों द्वारा उनके चालू जीवनको बदलनेका प्रयत्न करना चाहिये। इसके लिये हम ईसाई मिसनरियोंसे काफी शिक्षा ले सकते हैं। जिन भारतवर्षीय ईसाईयोंका हम लोग आदर करते हैं उन्हें बैठने के लिये कुर्सी देते हैं वे कल भंगी और चमार ही तो थे । फिर वे आज ऐसे कैसे बन गये ? एक सहवास और सदुपदेश ही तो इसका कारण है।
यदि भारतवर्षने जैन तत्त्वज्ञानके आधारसे इस समस्याको सुलझानेका प्रयत्न किया होता तो इसमें सन्देह नहीं कि इस समस्याके हल होनेमें जरा भी देर नहीं लगती। जैनधर्मने कर्मके आधारसे उच्चता और
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