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चतुर्थखण्ड : ५३९ पन्नालालजी द्वारा लिखित उक्त कविता एक नमूना है। इसमें तेराका किस प्रकार तेरह अर्थ करके तेरापन्थका खण्डन किया गया है यह तेरापन्थियोंको समझने लायक बात है ।
पण्डित पन्नालालजीका कहना है कि तेरापन्थी लोग ( 2 ) दस दिक्पालोंको अर्ध नहीं चढ़ाते, (२) बोसपन्थी मुनियोंकी चरण वन्दना नहीं करते, (३) जिनमूर्ति के चरणोंपर केशर नहीं लगाते, (४) फूलोंसे पूजा नहीं करते, (५) दो पकसे पूजा और आरती नहीं करते ( ६ ) आसिकाको मस्तकसे नहीं लगाते, (७) अभिषेक नहीं करते, (८) रात्रिमें जिनदेवकी पूजा नहीं करते, ( ९ ) शासनदेवताको नहीं मानते, (१०) दाल, भात और रोटी नहीं चढ़ाते, (११) हरे फल नहीं चढ़ाते, (१२) बैठकर पूजा नहीं करते, तथा (१३) स्त्रियां सूत्र सिद्धान्त ग्रन्थों का पठन-पाठन और प्रवचन नहीं कर सकतीं ।
ये तेरह बातें तेरापन्थी नहीं मानते, इसलिये ही इन्हें तेरापन्थी कहा गया है । किन्तु विचार कर देखा जाय तो ये सब क्रियाएँ मिथ्यात्वकी पोषक होनेसे जिनधर्ममें मान्य नहीं है । कारण कि हमारे समान दस दिक्पाल और शासनदेवता संसारी ही हैं, मोक्षमार्गी नहीं। फिर भी हम सब उनकी पूजा करें यह हमारा अज्ञान है । स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में इसीलिये इनकी उपासना करनेका निषेध किया है । जिनधर्मके शासनदेवता वास्तवमें जिनदेव ही हैं संसारमें रुलानेवाले देवी-देवता नहीं ।
निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं - पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक । इनको जैसे सचित्त वस्तुका स्पर्श नहीं कराया जा सकता वैसे ही स्नातकोंके और स्त्रियोंके प्रतिकृतिरूप जिनबिम्बको भी सचित्त वस्तुका स्पर्श कराना योग्य नहीं है, इसी कारण तेरापन्थी भाई सचित्त पुष्प और फलोंसे पूजा नहीं करते और नही पुष्पोंको भगवान्के चरणोंपर चढ़ाते ही हैं । केशर परिग्रहका प्रतीक है, इसलिये तेरापन्थी भाई भगवान् के चरणों में केशर नहीं लगाते ।
वीतराग साधुका कोई पन्थ नहीं होता । वह सदा वीतराग मार्ग साधुका ही उपासक होता है । फिर भी जो बीसपथकी पुष्टि करता है वह सच्चे अर्थ में वीतरागी साधु नहीं है, इसलिये जो गृहस्थ ऐसे साधुकी वन्दना नहीं करते वे ठीक ही करते हैं, क्योंकि बीसपन्थमें जिन १३ बातोंको स्वीकार किया है ये सब अज्ञानकी प्रतीक हैं । दीपकसे सूक्ष्म जीवोंका वध होता है, कभी-कभी बादर (स्थूल) जीव भी उसकी चपेटमें आ जाते हैं, इसलिये यदि तेरापन्थी, पूजा-आरतीमें दीपकका प्रयोग नहीं करते तो वे ठीक ही करते हैं । ऐसे आचरणके लिये उनकी हमें प्रशंसा ही करनी चाहिये । वीतराग जिन तो सदा ही वीतराग हैं । उनकी चाहे कोई निन्दा करे या प्रशंसा, उन्हें उससे कोई प्रयोजन नहीं । दोनोंके प्रति वे समान हैं । इतना अवश्य है कि जिस विधि से
वे अरहन्त और सिद्धपदको प्राप्त हुए हैं वह शिक्षा उनसे सहज ही मिल जाती है । इसे यदि आसिका माना जाय सो ऐसा कौन व्यक्ति है जो इसे लेना नहीं चाहता । उसके लिये सदा हो मस्तक झुका हुआ है । इसके सिवा दूसरी कोई आसिका नहीं है, जिसके लिये यह अपना मस्तक झुकाता फिरे ।
सिजा हुआ अन्न एक मर्यादा तक ही ठीक रहता है । उसके बाद उसमें त्रस जीवोंकी उत्पत्ति होने लगती है । यही कारण है कि तेरापन्थी भाई-बहन प्रासुक द्रव्यसे ही पूजा करते हैं । हम तो कहेंगे कि पुण्य किसमें है इसका विचारकर बीसपन्थी भाइयों को भी ऐसा ही करना चाहिए ।
जिन प्रतिमा अरहन्त और सिद्ध पदका प्रतीक है। और इन दो पदोंका अभिषेक होता नहीं, अत: शुद्धिके ख्याल से उनका प्रक्षाल ही किया जाता है, अभिषेक नहीं। यह वस्तुस्थिति है । बीसपन्थी भाइयोंको इस विधिका अनुसरण करना चाहिये ।
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