________________
चतुर्थखण्ड ५४३ जो जब जिस कर्मको करता है उस समय वह उस वर्णका माना जाता है । आजीविका के साधन बदल जाने पर वर्ण भी बदल जाता है । वर्ण कोई भी हो पर दानका लेना देना, अध्ययन अध्यापन करना और पूजा करना ये कार्य किसीके लिये वर्जित नहीं हैं । केवल इतनी विशेषता है कि ब्राह्मण इस संज्ञाकी प्राप्ति में चारित्र भी निमित्त है। इसीसे उसका कोई भी कर्म निश्चित नहीं किया गया है। वह अपने चारित्रका अविरोधी कोई भी कर्म कर सकता है । क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र जो भी श्रावक व्रतको स्वीकार करता है वह ब्राह्मण वर्णका कहलाने लगता है ।
माना कि उत्तरकालवर्ती कुछ आवार ग्रन्थोंमें अनेक दूषित परम्पराओंने प्रवेश पा लिया है और अधिकतर विद्वान् उनके अनुसार वर्तन करना ही धर्म समझने लगे हैं। आज जैन संघमें जो विविध मत दिखाई देते हैं वे इसीके परिणाम हैं। पर यदि वे किंचित् विवेकसे काम लें तो उन्हें अपने मतके बदलनेमें जरा भी देर न लगे । उन्हें केवल इतना ही विवेक करना है कि ब्राह्मण कहे जाने वाले मनुष्यसे शूद्र कहे जानेवाले मनुष्यमें तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं है । जिस प्रकार एक मनुष्यका पगड़ी बाँधना और दूसरे मनुष्यका टोपी पहिनना यह रुचिका प्रश्न है, इससे उन दोनों मनुष्योंको आन्तर योग्यतामें कोई अन्तर नहीं आता। उसी प्रकार बाह्य परिस्थितिवश कर्मभेदसे भी मनुष्योंकी आन्तर योग्यतामें कोई अन्तर नहीं आता। दोनों ही मोक्षके अधिकारी हैं और दोनों ही स्वर्ग नरक आदिके भी अधिकारी हैं । अतः यही निश्चित होता है कि मनुष्यका वर्ण अर्थात् व्यवसाय कुछ भी क्यों न हो इससे वह अन्य इससे वह अन्य मनुष्योंसे किसी भी बातमें न तो हीन ही समझा जा सकता है और न ऊंच ही ।
जैन परम्पराके अनुसार वर्ण व्यवस्थाका यह आन्तर रहस्य है। हम समझते हैं कि आजका मानव समुदाय इस प्रकारकी व्यवस्था करनेमें पूरी तरह हाथ बँटायेगा ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org