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५४६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
प्रकारसे अवश्य ही त्याग कर देना चाहिये। यह विधि है। इस बातको ध्यानमें रखकर दोनोंके लिए बहतसे नियम बनाये गये हैं। शीलके जो अठारह हजार भेद आगममें बतलाये गये हैं उनके पीछे यह हेतु मुख्य है। वे अच्छी तरहसे तभी पल सकते हैं जब पुरुष और स्त्री दोनों ही अपनी-अपनी मर्यादामें रहते हुए इनमेंसे जिनका पालन करना गृहस्थके लिए शक्य है उनका पालन करने में समुचित ध्यान रखें ।
यहाँ कोई कहे कि वे तो मुनियोंके लिए आगममें बतलाये हैं गृहस्थोंके लिए नहीं। सो ऐसी बात नहीं है, क्योंकि जो धर्म मुनियों के लिए कहा गया है, अंशतः गृहस्थ भी उसका पालन करे यह विधि है । यदि मुनि समग्र भावसे उसका पालन करते हैं तो भले करें, गृहस्थोंको उनके पालन करनेमें सावधान तो रहना ही चाहिये।
जो स्त्री-पुरुष पाँच अणुव्रत लेते हैं वे तो उनका उत्तम प्रकारसे पालन करते ही हैं । कदाचित् उनके पालन करने में दोष लगता है तो उसका परिमार्जन भी करते हैं। पर जो पाँच अणुव्रत भी नहीं लेते हैं तो क्या उनके लिए यह छूट है कि वे हिंसा आदिमें यद्वा-तद्वा प्रवृत्ति करें, यदि नहीं, तो सामाजिक दृष्टिसे उन्हें भी हिंसा आदिका ऐसा काम न करना होगा जिसे समाजमें निन्द्य समझा जाय और स्वयंको लोकापवादका पात्र बनना पड़े। इसी दृष्टिको ध्यानमें रखकर लौकिक और पारलौकिकके भेदसे धर्मको दो भागोंमें विभक्त किया गया है। इसी बातको ध्यानमें रखकर सोमदेव सूरि यशस्तिलकमें लिखते भी है
द्वौ हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः ।
लोकाश्रयी भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः॥ लौकिक और पारलौकिकके भेदसे धर्म दो प्रकारका है । लौकिक धर्मका आधार लोक (समाज) है और पारलौकिक धर्मका आधार आगम है ।
इसका अर्थ है कि गृहस्थ चाहे वे स्त्री हो या पुरुष जो पारलौकिक धर्म (गुरुको साक्षीपूर्वक व्रतादि) स्वीकार नहीं करते, उन्हें सामाजिक मर्यादा बनाये रखनेके लिए उस मर्यादाके अनुरूप आचारका पालन अवश्य ही करना चाहिये। इसके लिए पहले गाँवके स्तरपर या मुहल्ले आदिके स्तरपर सामाजिक संगठन अवश्य रहता था। उसके मुखिया सामाजिक मर्यादाका स्वयं तो पालन करते ही थे, उन मर्यादाओंका दूसरोंसे भी पालन कराते थे। इसके लिए पुराने कालमें दण्ड व्यवस्था भी थी। और जो सदस्य उस व्यवस्थाका उल्लंघन करता था वह पंचायत द्वारा दंडका भागी होता था। श्री सोमदेव सूरिने लौकिक धर्मको लौकाश्रित कह कर इसीकी ओर संकेत किया है । इसके लौकिक धर्मका तो पालन होता ही था, पारलौकिक धर्मकी ओर भी आम स्त्री-पुरुषका झुकाव बना रहता था। जैन मात्रको प्रतिदिन श्री जिनमन्दिर में जाकर भगवान्के दर्शन करने चाहिये, छान कर पानी पीना चाहिये और रात्रिमें भोजन नहीं करना चाहिये यह इसी सामाजिक व्यवस्थाका सुखद फल होता था।
मुनि तो मात्र पारलौकिक धर्मका ही आचरण करते हैं । इस कारण वे मात्र आहार-पानीके निमित्त गाँवमें आते हैं। कौन सम्पन्न है और कौन निर्धन, उन्हें इससे कोई मतलब नहीं रहता था। जो धर्मका जिज्ञासु है वह उनके पास जाय और धर्मकी शिक्षा ले । वे वचन न बोलते हुए भी अपने शरीरसे मोक्षमार्गका दर्शन करा देते थे।
किन्तु जो गृहस्थ स्त्री-पुरुष हैं उन्हें सामाजिक मर्यादाओं का अवश्य ही पालन करना चाहिये । इसी आधारपर वे पारलौकिक धर्म स्वीकार करनेके अधिकारी होते हैं । और इसी आधारपर यह परम्परासे स्वीकार
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