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महिलाओं द्वारा प्रक्षाल करना योग्य नहीं
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इस कालमें कोल्हापुर निवासी डा० ए० एन० उपाध्ये एक मनीषी विद्वान् हो गये हैं । वे साहित्यिक गोष्ठियोंमें सम्मिलित होनेके लिए प्रायः उत्तरप्रदेश में भी आया करते थे। कई मन्दिरोंके गर्भालयोंमें घुसकर महिलाओंको भगवान्का अभिषेक-प्रक्षाल करते हुए देखकर वे आपसमें कहा करते थे कि उत्तरप्रदेशमें यह प्रथा कबसे चल पड़ी है। हमारे प्रदेश में तो महिलाएँ गर्भालयमें कभी भी प्रवेश नहीं करतीं। जब उन्हें बतलाया जाता कि बीसपन्थका प्रचार करनेवाले साधुओंने ही यह प्रथा चलाई है। तब उन्हें बड़ा आश्चर्य होता और वे यह बात सुनकर अवाक् रह जाते ।
इस कालमें ऐसे भी कई मुनिसंघ है जिनका संचालन महिलाएँ ही करती हैं। इतना ही नहीं, उन्हें स्पर्श करनेमें भी वे नहीं हिचकिचाती। साधु भी ऐसा करनेसे उन्हें नहीं रोकते । आगम क्या है इस ओर वे थोड़ा भी ध्यान नहीं देते । शायद उन्हें परलोकका जरा भी भय नहीं है तभी तो वे ऐसा करते-कराते रहते हैं।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि महिलाएँ जिनदेवका पूजन-वन्दन करें, मुनियोंको आहार दें, वे भोजन बनानेका सब काम भी करें, फिर उनमें ऐसी कौनसी कमी है कि वे श्री जिन मन्दिरमें जाकर जिनबिम्बका न तो प्रक्षाल-अभिषेक ही कर सकें और न उसे स्पर्श ही कर सकें। पुरुष साधुओंकी वैयावृत्य तो करे और महिला न करे यह कैसी बात है । भगवान्का प्रक्षाल करना साधुओंकी वैया वृत्य करना ये पूजन-वन्दनके समान ही जब धर्मसाधनके अंग हैं तब फिर उन्हें ऐसा करनेका निषेध क्यों किया जाता है ।
यह एक समस्या है जिसपर आगमके प्रकाशमें विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है । मूलाचारका एक समाचार नामका अधिकार है। उसमें लिखा है
एवंगुणवदिरित्तो जदि गणधारित्तं करेदि अज्जाणं ।
चत्तारिकालगा से गच्छादिविराहणा होज्ज । जो आचार्य क्षमादि गुणोंसे विभूषित नहीं है, धर्ममें स्थिर नहीं है, वैराग्यप्रवण नहीं है, संग्रह और अनुग्रह करने में कुशल तथा अपने संघकी संम्हाल करनेमें भी समर्थ नहीं है, वह यदि आयिकाओंका आचार्य बनता है तो वह गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना आदिकी विराधना करनेवाला होता है।
इससे मालूम पड़ता है कि जिस प्रकार पिता कन्याकी भले प्रकार रक्षा करता है उसी प्रकार पिता स्थानीय आचार्य भी आर्यिकाओंकी रक्षा करने वाला होना चाहिये । इसीलिये आचार्यको चिरकालका दीक्षित होना चाहिये आगममें यह कहा गया है ।
यह सब जानते हैं कि जिस समय कन्या यौवन सम्पन्न हो जाती हैं उसी समय वही पिता कन्याके शरीरको स्पर्श तक नहीं करता । जहाँ गृहस्थावस्थामें यह स्थिति है वहाँ साधुको कैसे रहना चाहिये इसका भी विचार करके वहाँ लिखा है
कण्णं विधवं अंतेउरियं तह सइरिणी सलिंगं वा । अचिरेणाल्लियमाणो अपवादं तन्थ पप्पोदि ।।१८२॥
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