Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 582
________________ चतुर्थ खण्ड : ५४५ जो साधु कन्या, विधवा, गृहणी, स्वैरिणी और व्रतधारिणीके साथ सम्भाषण करता है, उनके साथ बैठता उठता है वह लोकमें निन्दाका पात्र होता है । जहाँ पुरुष साधुओंके लिये यह मर्यादा स्थापितकी गई है वहीं आर्यिकाएँ चौर गृहस्थ स्थियां भी साधुओंके साथ किस प्रकार वर्तन करें इसका विचार भी आगममें किया गया है वहाँ लिखा है पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधू य । परिहरिऊणज्जाओ मवासणेणेव वंदंति ॥१९५।। आचार्यसे पाँच हाथ दूर, उपाध्यायसे छह हाथ दूर और साधुसे सात हाथ दूर बैठकर आयिकाने उनके समक्ष क्रमसे अपनी आलोचना, अध्ययन और उनकी वन्दना करनी चाहिये ।।१९५।। इससे स्पष्ट है कि आयिकाओंके लिये आगममें जब इतनी कड़ी व्यवस्था है तब अन्य गहस्थ स्त्रियोंतो इस मर्यादाका और भी कड़ाईसे पालन करना चाहिये। ऐसी अवस्थामें वे जिनबिम्बको स्पर्श करें यह फैसे बन सकता है। पूजन करना, वन्दना करना और बात है और प्रक्षाल-अभिषेक करना और बात है। इन दोनों क्रियाओंमें बड़ा अन्तर है। वन्दना पूजन क्रिया दर रह ही की जाती है और प्रक्षाल अति निकट रहकर की जाती है। प्रक्षाल-अभिषेक क्रियामें केवल कलश ढारना ही पर्याप्त नहीं है, किन्तु स्वच्छ अंगोछीसे पोंछकर जिनबिम्बको सुखा कर देना भी उसका अंग है। अतः किसी भी महिलाको पुरुषका विग्रह (शरीर) समझकर जिनबिम्बका न तो प्रक्षाल ही करना चाहिये और न स्पर्श ही करना चाहिये । जिनबिम्ब वीतरागताका प्रतीक हो सकता है, महिला वीतराग नहीं होती। वह पुरुष शरीर है, पता नहीं कब कैसे परिणाम हो जायें। यदि कहा जाय कि दर्शन करते समय भी ऐसा होना सम्भव है । यह सच है, परन्तु शक्य का ही परिहार किया जाता है, अशक्यका नहीं ऐसा समझ कर महिलाको दर्शन-पूजन करनेका निषेध नहीं किया गया है, प्रक्षाल-अभिषेक करनेका निषेध किया गया है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि कोई भी महिला भगवानका प्रक्षाल अभिषेक न करे इसका कथन किस आगममें किया गया है । सो इसका समाधान यह है कि जैसे पुरुषको स्वस्त्रीको छोड़कर सचित्त और अचित्त किसी भी प्रकारकी स्त्रीको स्पर्श करने और रागपूर्वक देखने और स्पर्श आदि करनेका आगममें निषेध है उसी प्रकार स्त्रीको भी स्वपुरुषको छोड़कर सचित्त और अचित्त किसी भी पुरुषको स्पर्श करने और रागपूर्वक देखनेका आगममें निषेध है। इस प्रकार जब यह व्यवस्था है तो ऐसी अवस्था में महिलाओं द्वारा भगवान्की प्रतिकृतिस्वरूप जिनबिम्बके अभिषेकका आगमसे स्वयं निषेध हो जाता है। यह आगम ही तो है जिसका सम्प्रदाय भेदके बिना सबको पालन करना चाहिये । यह किसी खास सम्प्रदायकी बात नहीं है । जीवनको धर्ममर्यादाके अनुकूल बनाये रखनेकी बात है।। यहाँ कोई कहे कि पुरुषके समान स्त्री भी परपुरुषको न तो रागपूर्वक देखे ही, और न स्पर्श ही करे यह तो समझमें आता है, परपुरुषकी अचित्त मूर्तिको स्त्री न तो स्पर्श करे और न रागपूर्वक देखे ही यह बात समझमें नहीं आती, क्योंकि उस अचित्त मूर्ति के साथ जब संसारको बढ़ानेवाला कार्य किया ही नहीं जा सकता ऐसी अवस्थामें उसे स्पर्श आदि करनेका निषेध क्यों किया जाता है ? सो इसका समाधान यह है कि स्पर्श करनेसे मनोविकारका होना अधिक सम्भव है इसलिए उसका सर्वप्रथम त्याग कराया जाता है। जो सबकी उत्पत्तिका निमित्त विशेष है उसका त्याग करनेसे ही वह धर्म उत्तम प्रकारसे पलता है। स्त्री स्वपुरुषमें सन्तोष रखे और पुरुष स्वस्त्रीमें सन्तोष रखे यह गृहस्थ धर्मकी मर्यादा है। इसका निर्वाह करने के लिए स्त्रीको परुषके समान काष्ठ, पाषाण और लेप आदिसे निर्मित अचित्त पुरुष मूर्तिका सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720