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५३८: सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
जाता था वही इस कालमें तेरापन्थ कहा जाने लगा। जैन निबन्ध रत्नावलीमें तेरापन्थको ध्यानमें रखकर लिखा है
तेरापन्थ भयो हरषे बढ़ो चितचाव । विषमपन्थ अब सुगम कराव ।। यह संख्यावाची नहीं। वहां बीसपन्थको ध्यानमें रखकर भी लिखा है
बीसपन्थ अर्थात् विषमपन्थ-टेढ़ापन्थ जिनमतमें मान्य नहीं। यह भी संख्यावाची नहीं । विषमका बीस कहा जाने लगा है।
ज्ञानानन्द श्रावकाचार में भी तेरापन्थके विषयमें लिखा है
तेरापन्थी हों । ते सिवाय और कुदेवादिककौं हम नहीं सेवे हैं। तुम हीने सेवों तो तेरापन्थी । सो म्हां तुम्हारौ आज्ञाकारी हौं। जोधराम गोदीवाने प्रवचनसारके अन्तमें लिखा है
__ कहे जोध अहो जिन ! तेरापन्थ तेरा है। यह सब होते हुए भी १२-१३वीं शताब्दी में एक मुनि या भट्टारक हो गये हैं जिन्होंने अपना नाम चन्द्रकीति लिखा है। वे मूलसंघको ध्यानमें रखकर लिखते है
मूल गया पाताल मूल नयने न दीसे । मूलहिं सव्रत भंग किम उत्तम होसे ।। मुल पिठां परवार तेने सब काढी। श्रावक यतिवर धर्म तेह किय आवे आढी ।। सकल शास्त्र निरखतां यह पन्थ दीसे नहीं।
चन्द्रकीर्ति एवं वदति मोरपीछ कोठे कही ॥ इससे स्पष्ट है कि बीसपन्थ (काष्ठासंध) मूलसंघका सदासे विरोधी रहा है। इतना ही नहीं, किन्तु इस कालमें मूल संघके स्थानमें जो तेरापन्थ प्रचलित है उसमें भी 'तेरा' पदका अर्थ विपर्यास द्वारा तेरह अर्थ करके उसका खण्डन करते हुए श्री पं० पन्नालालजी जयपरी गद्यमें 'तेरा पन्थ खण्डन' में लिखते है
दस दिक्पाल उत्थापि गुरु चरणां नहिं लागै । केसर चरणां नहिं धरै पुष्पपूजा फुनि त्यागै ॥ दीपक अर्चा छांडि आसिका भाल न करहिं । जिन न्हवन न करे रात्रिपूजा परिहरहिं । जिनशासन देव्या तजि रांध्यो अन्न चहोडे नहिं । फल न चढ़ावै हरित फुनि बैठि पूजा कर नहिं ।। ये तेरह उर धरि पन्थ तेरे उर थाप्ये ।
जिनशासन सूत्र सिद्धांत मांहिला वचन उथापै ।। हम पहले तेराका अर्थ लिख आये हैं । जबसे मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्य और शुद्धाम्नायके अर्थमें तेरापन्थ शब्द प्रयुक्त होने लगा तबसे ही 'तेरा' पदका अर्थ हे भगवन् ! आपका यही अर्थ होता आ रहा है । इसके पोषक कई प्रमाण हम पहले दे ही आये हैं। फिर भी बोसपन्थी इसका क्या अर्थ करते हैं इसका पण्डित
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