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५३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
नीतिसारके उल्लेखसे भी ज्ञात होता है कि सब संघोंका मूल स्रोत मूलसंघ ही है ।' बादमें एक अंगधारी जिनका दूसरा नाम गुप्तिगप्त है। अर्हद्बलिने देश, काल और परिस्थितिका विचारकर मूलसंघके अन्तर्गत सिंह, नन्दि, सेन और देवसंघकी स्थापना की।
वर्तमानमें जो शुद्धाम्नायके नामसे प्रसिद्ध है यह उसीका दूसरा नाम है। इस समय इसे तेरा-भगवन् आपका पन्थ भी कहा जाता है। यद्यपि मूर्तिलेख आदिमें इसका कहीं उल्लेख तो दृष्टिगोचर नहीं होता है। पर आजकल शुद्धाम्नायको इसी नामसे जाना जाता है। शुद्धाम्नायके जो मूर्तिलेख हमारे देखनमें आये हैं उनमें से एक मूर्तिलेख पालीतानाके दिगम्बर जैन मन्दिरमें स्थित जिनमूर्तिपर अंकित है। वह पूरा लेख इस प्रकार है
वि० सं० १७३४ वर्षे मूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्री कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये भट्टारक सकलकीति तत्पट्टे श्री पद्मनन्दी तत्पट्टे भ० श्री देवेन्द्रकीर्ति तत्पट्टे भ० श्री क्षेमकोर्तिशुद्धाम्नाये वागऽदेश शीतपाड़ानगरे हूँमड़ज्ञातीय लघुशाखायां कमलेश्वरगोत्रे दोषी श्री सूरदास तत् सूरमद तयोः पूत्रदोशी सांगीता सरजाण एतयोः पुत्री।
शुद्धाम्नायके पोषक इस लेखसे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् कुन्दकुन्द आम्नाय, शुद्धाम्नाय और तेरापन्थ ये तीनों एक ही है। यद्यपि कई शताब्दी पूर्वसे लेकर इस आम्नायके जितने भी भट्टारक पट्ट रहे हैं उन सबने अपने व्यवहारमें शुद्धाम्नाय परम्पराका पूरी तरहसे त्याग कर पूजा-पाठमें काष्ठासंघ परम्पराको भले ही अपना लिया था, पर अपनी शुद्धाम्नाय परम्परासे अनभिज्ञ और यशके भखे श्रावकों और पण्डितोंका भी इस स्थितिको उत्पन्न करने में बहुत बड़ा हाथ रहा है । यह हमारी कोरी कल्पना नहीं है। वर्तमान कालमें इस आम्नायके श्रावकों द्वारा मुनि आचारमें शिथिलाचारको जिस प्रकार बढ़ावा दिया जा रहा है उससे ही इस तथ्यकी पुष्टि होती है। यदि विचार कर देखा जाय तो पता लगेगा कि १०-११वीं शताब्दीसे ही इस बुराईने मूलसंघ शुद्धाम्नायको राहुकी तरह ग्रसना प्रारम्भ कर दिया था। यही कारण है कि समयसमयपर ऐसे सद्गृहस्थ और अपनी श्रमणोचित चर्याके प्रति निष्ठावान् मुनि होते आये हैं जिन्होंने शिथिलाचारी मुनि और उनके अनुवर्ती श्रावकोंकी चिन्ता न कर अपनी पूरी शक्ति इस बुराईको दूर करने में लगाई है। यहाँ हम ऐसे दो उदाहरण उपस्थित करते हैं जिनसे हमारे इस कथनकी पुष्टि होती है । पहला उदाहरण पचराई (खनियाधाना) क्षेत्रका है, जिसे उपयोगी जानकर यहाँ दिया जा रहा है
. श्री कुन्दकुन्दसन्ताने देसिके संज्ञिके शुभनन्दिगुरोः शिष्यः सूरिः श्री लीलचन्द्रकः । हरीव भूत्या हरिराजदेवो भीमेव हि तस्य भीमः । सुतस्तदीयो रणपाल नाम एतद्धिरान्वये कृतिराजतस्य । परपाटान्वये शुद्धे साधुः नाम्ना महेश्वरः। महेश्वर परेव विख्यातस्तत्सुतो बोधसंज्ञकः । सत्पुत्रो राजनो ज्ञेयः कीर्तिस्तस्यैवमद्भुता। जिनेन्द्रवत्शुभात्यन्तं राजते भुवनत्रये । तस्मिन्नेवान्वयै दिव्ये गोष्ठि कावपरौ शुभौ । पंचमासे स्थितो ह्येको द्वितीयादशभासके || आद्योऽसिहडो ज्ञेयः समसाजससां निधिः । भक्तोजिनवरस्याद्यो विख्यातो जिनशासने। मंगलं महाश्रीः । भद्रमस्तु जिनशासनस्य । संवत् ११२२ ।
यह वि० सं० ११२२ का लेख है। इस लेखमें आचार्य कुन्दकुन्द आम्नायमें हुए परपट (परवार) अन्वयको शुद्ध कहा गया है। इससे इस तथ्यको पुष्टि होती है कि शुद्धाम्नायकी परम्पराको लोकमें बनाये रखना परवार (पौरपाट) अन्वयकी अपनी विशेषता तो है ही, दूसरे आम्नायको बुन्देलखण्डमें प्रवेश न करने १. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग ४, पृष्ठ ३५८ ।
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