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चतुर्थ खण्ड : ५३७
देना यह भी इस अन्वयकी अपनी विशेषता है । साथ ही इससे यह भी सिद्ध होना है कि शुद्धाम्नायका प्रचलन न तो श्री पं० बनारसीदासजीने ही किया है और न पण्डितप्रवर टोडरमलजीने ही इसको मर्तरूप दिया है। किन्तु इससे ऐसा लगता है कि इन दोनों विद्वानोंके कालमें भी आगरा और जयपुर में शुद्धाम्नायके जिनमन्दिर
और उसका प्रचार अवश्य रहा है । अतः जैनधर्मका मूलरूप समझकर इन्होंने भी इसे न केवल स्वीकार किया अपितु इस आम्नायके प्रचारमें अपने जीवनका बहुभाग व्यतीत किया।
वस्तुतः इस कालमें यह हजारों वर्षसे चली आ रही सर्वाधिक प्राचीन परम्परा है । यद्यपि मध्यकालमें जन्मी काष्ठासंघ परम्पराको, अपने प्रभाव जमानेमें उपयोगी जानकर, भट्टारकोंने अवश्य ही उसे स्वीकार कर लिया था और इस कारण इस (शुद्ध) आम्नायमें भी शिथिलाचारने किसी हदतक अपना स्थान बना लिया था। पर शुद्धाम्नायका पूरी तरहसे लोप न किया जा सका ।
_ इसकी पुष्टिमें एक लेख तो हम पहले ही उद्धृत कर आये हैं । ऐसा ही एक लेख बूढ़ी चन्देरीमें भी उपलब्ध हुआ है । इसमें कुन्दकुन्दान्वय नन्दिसंघके एक उपासकको शुद्धाम्नायके अनुसार ही यम नियमके पालन करनेमें दक्ष कहा गया है । लेखका वह अंश इस प्रकार है
श्री कुन्दकुन्दान्वयनन्दिसंघे जातो मुनिः श्री शुभकीतिसूरिः । चरणांबुजापोन्दुमरीचिगौरे विभ्राजितानां तिणोयशोभिः ।। समभवत् शुभनन्दी तस्य शिष्यः रामाबुधजननयालोकैकभानुः । यमनियम... " शुद्ध सिद्धान्तवली परिगतभवकीतिः वीतसंसारचित्तः । बभूव भद्रो वनिजां सनेता कषायदोषप्रसरस्य हन्ता |
हम पहले पचराईमें प्राप्त एक शिलालेखका उल्लेख कर आये हैं उस लेखसे भी उस लेखमें वर्णित विषयकी पुष्टि होती है। सम्भवतः इन दोनों लेखोंमें अंकित प्रशस्तियाँ लगभग एक ही कालमें आगे-पीछे लिखी गई हैं । पचराईके शिलालेखमें अधिकतर लेख संस्कृत छन्दमें लिखा गया है। यह लेख उसीका अनुसरण करता है । दोनोंमें ही श्री शुभनन्दि गुरुका उल्लेख हुआ है। जान पड़ता है कि ये एक ही व्यक्ति हैं । जैसे पचराईके लेखमें शुद्ध शब्दके द्वारा शुद्धाम्नायको सूचित किया गया है वैसे ही इस लेखमें भी यम-नियमको शुद्ध कहकर शुद्धाम्नायको ही सूचित किया गया है । तथा इस प्रशस्तिमें भद्रनामके व्यापारियोंके जिस नेताका उल्लेख हुआ है, जान पड़ता है कि ये भी पौरपाटान्वयी (परवार) होने चाहिये, क्योंकि इनके गुरु भी वही सूरि हैं जो पचराईके शिलालेखके लेखके गुरु है । दोनोंके लिये विशेषण भी एक समान है । ये दोनों उन महानुभावोंमेंसे हो सकते हैं जिनके नेतृत्वमें इस अन्वयके कतिपय कुटुम्ब मेवाड़ और गुजरातको छोड़कर इस प्रदेशमें आकर बसे हैं।
यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि कुन्दकुन्दान्वय, शुद्धाम्नाय और तेरापन्थ ये एक ही है । केवल इनमें नामभेद अवश्य है। परम्परावली है जो इस कालमें तीर्थकर भगवान महावीरके कालसे चली आ रही है । फिर भी मूलसंघको पहले कुन्दकुन्दाचार्यान्वय कहा गया। बादमें काष्ठासंघके लोकमें प्रचलित हो जानेसे इसे शुद्धाम्नाय कहा गया। फिर भी मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्यान्वयको माननेवाले भट्रारकों द्वारा काष्ठासंघकी परिपाटीके अनुसार देवी-देवताकी उपासना करना, बैठकर पूजा करना, निर्ग्रन्थ मुद्राको गन्ध-पुष्प आदि लगाकर परिग्रही बनाना आदिको स्वीकार कर लिया गया तब जाकर निर्दोष आचारवाले मुनियों और गृहस्थोंने शुद्धाम्नायको अंगीकार कर यह कहना प्रारम्भ किया कि हे भगवन् ! देवी-देवता आदिकी पूजा करना यह तेरा अर्थात् आपका मार्ग नहीं है। इससे वही मूलसंघ जो पहले कुन्दकुन्दाचार्यान्वयके अन्तर्गत शुद्धाम्नाय कहा
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