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धर्म और देवद्रव्य
किसी भी धर्मको चिरस्थायी रूप देनेके लिये धार्मिक संस्थाओंकी सबसे पहिले आवश्यकता होती है । संसारमें ऐसे भी धर्म है जिन्होंने प्रतिमाके अस्तित्वका निषेध किया है। इतना ही नहीं वे प्रतिमाको धर्मका अंग माननेके लिये भी तैयार नहीं है। जो कुछ भी हो, आज हम प्रतिमाकी उपयोगिताके ऊपर यहाँपर कुछ भी नहीं लिख रहे हैं, वह स्वतंत्र विषय है इसलिये उसके ऊपर स्वतंत्र ही लिखा जावेगा। हमें तो यहाँपर प्रतिमाको देवरूपसे स्वीकार करके आगेका विचार करना है।
धर्मक साधनभूत दो अंग हैं एक बाह्य और दूसरा आभ्यंतर । आभ्यंतर साधन स्वयं आत्माकी विकासरूप अवस्था है और बाह्य साधन जिन अंगोंसे आत्मधर्मके लिये प्रोत्साहन है, वे हैं। उनमें मंदिर यह सबसे बड़ा साधन माना गया है। मंदिर एक ऐसा स्थान है जहाँपर धर्मके इच्छुक एकत्रित होकर अपने कल्याणके मार्गका सामुदायिक रीतिसे विचार और आचार कर सकते हैं । इसलिये उसे स्थायीरूप देनेकी समाजको आवश्यकता प्रतीत हुई। स्थायीरूप द्रव्यके बिना किसी भी संस्थाको देना कठिन ही नहीं असंभव है। कोई भी संस्था केवल सद्भावनाके ऊपर अधिक दिन तक नहीं टिक सकती है। कारण मानव जातिका ऐसा स्वभाव ही है कि परिस्थितिके अनुसार उसके स्वभावमें बदल पड़ता ही है । अतएव विचारोंकी क्रांतिके होनेपर भी संस्थाको अव्याहत रूपसे स्थिर रखनेके लिये द्रव्य सबसे बड़ी पोषक सामग्री है।
प्रायः यह देखा जाता है कि जिस निमित्तसे द्रव्यसंग्रह किया जाता है उसको वही नाम प्राप्त हो जाता है । देवद्रव्य को उपपत्ति इससे और दूसरी क्या हो सकती है।
बहजनसमाजके लिये संस्थाका नाम निकाला कि उसकी रक्षाके लिये संचित होनेवाला द्रव्य भी सार्बजनिक ही होगा । तिस पर देव द्रव्य तो ऐसी वस्तु है कि उसमें सभीका थोड़ा बहुत अंश रहता है। इसलिये देवद्रव्यकी रक्षाके लिये धर्मग्रन्थोंमें स्वतंत्र नियम किये गये है। देवद्रव्यके अपहरणमें सबसे अधिक पाप बतलाया है । एक नहीं अनेक ग्रंथोंमें इसके ग्रहण करने का निषेध किया है।
परंतु इस द्रव्यके ग्रहण करनेका इतना निषेध क्यों किया है, उस द्रव्यमें और द्रव्यसे क्या विशेषता उत्पन्न हो जाती है । इसका इतना ही उत्तर दिया जा सकता है कि द्रव्यका नाम लिया कि, प्रत्येक मनुष्यके मुखमें पानी आये बिना नहीं रहता है। फिर भी मनुष्य पापसे डरता है इसलिये ही इसका ग्रहण पापका कारण बतलाया गया है।
इतना सब कुछ होते हुए भी लोग किसी न किसी रूप में उसको ग्रहण करते ही हैं कोई व्याज देकर तो कोई गहना रख कर उस द्रव्य को अपने कामके चलानेके लिए लेते ही हैं । यद्यपि इससे बहुत जगह अनेक झगड़े उत्पन्न होते हैं । इसलिए बहुतसे भाईयोंका यह भी मत दिखता है कि देवद्रव्य किसी भी शर्त पर नहीं देना चाहिये । परन्तु उन भाईयोंकी यह सूचना अव्यवहार्य ही समझना चाहिये द्रव्यका उपयोग संचय करना न होकर उसके द्वारा लोक कल्याण साधना ही है। दूसरे जो तत्त्व समाजमें मान्य हो चुका है उसको नष्ट नहीं किया जा सकता है। तीसरे धार्मिक ग्रन्थोंमें देव द्रव्यके ग्रहण करनेका जो निषेध किया है वह मूल द्रव्यके ग्रहण करनेका निषेध किया है। इसलिये मूलद्रव्यके रहते हुए यदि उस द्रव्यसे अपनी समाजका उपकार हो सकता है तो इस लाभके उठाने में किसीको भी निषेध नहीं करना चाहिये। धर्ममर्यादाके अन्दर
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