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'५३० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
है। दूसरा कारण यह है कि उक्त दोनोंमें बाह्य व्याप्ति घटित हो जाती है। और इसी आधारपर इन देनोंमें अन्वय-व्यतिरेक घटित होता है। जहाँ बाह्य सामग्री या अन्तरंग सामग्री हो और कार्य न हो, वहाँ उन दोनोंको उस कार्यका निमित्त कहना स्थूल दृष्टि है। वस्तुतः जब कोई द्रव्य निश्चय उपादान पदवीको प्राप्त होता है तब उसके अनन्तर समयमें जिसका वह उपादान निमित्त होता है वह कार्य अवश्य होता है और उसका जिसकी उस प्रकारके कार्यके साथ कालिक व्याप्ति होती है ऐसा कोई न कोई बाह्य निमित्त भी होता है। तीसरा कारण यह है कि उपादानके अनुसार जो कार्य होता है, बाह्य सामग्री का व्यापार । वहारनयसे उसके अनुकूल ही होता है। ये तीन कारण हैं जिन्हें लक्ष्यमें रखकर कार्य और उसके अनुकूल बाह्य सामग्रीमें निमित्त-नैमित्तिक व्यवहार किया जाता है ।
नय सात है-नैगमनय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्रनय, शब्दनय, समिभरूढिनय और एवं भूतनय । पर और अपर सत् संग्रहनयका विषय है। संग्रहनयसे गृहीत सत्में भेद करना व्यवहारनयका विषय है । वर्तमान पर्यायको ग्रहण करना ऋजुसूत्रनयका विषय है तथा शब्दादिके भेदसे वतमान पर्यायको ग्रहण करना शब्दादि तीन नयोंका विषय है। इससे ज्ञात होता है कि कार्यकारण भाव इन छहों नयोंका विषय तो हो नहीं सकता, क्योंकि इनमें से प्रारम्भके दो नय तो सत् और सतमें किये गये परमाण तक अवान्तर भेदको विषय करते है तथा अन्तके चार नय वर्तमान पर्यायको विषय करते हैं। कार्य-कारणभाव दोमें बनता है इसलिए यह कारण है और यह इसका कार्य है इस प्रकार दोमें सम्बन्ध स्थापित करना इन नयोंका विषय नहीं हो सकता । अब केवल नैगमनय रह जाता है। सो उक्त सब नयोंका जितना विषय है वह सब नैगमनयका विषय है, क्योंकि इसमें संकल्पकी मुख्यता रहती है । नैगमनयको व्यत्पत्ति है-'नैकगमो नैगमः' इसके अनुसार शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, सहचार, मान, मेय, उन्मेय, भूत, भविष्यत् और वर्तमानके आलम्बन द्वारा किया गया उपचार इस नयका विषय है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह इसका कार्य है और यह इसका कारण है इस प्रकार दोके आलम्बनसे जितना भी व्यवहार किया जाता है 'वह सब नैगमनयकी अपेक्षा ही बनता है, अतः इस सब व्यवहारको उपचरित ही समझना चाहि कारण है कि श्री समयसारमें विविध स्थलोंपर आचार्य अमृतचन्द्रदेवने ऐसे सब व्यवहारको विकल्परूप कहकर उसे उपचरित ही बतलाया है। इस प्रकार परमागम प्रसिद्ध नयोंके आधारसे विचार करनेपर भी यही सिद्ध होता है कि प्रयोजन विशेषसे एकको निमित्त और दूसरेको उसका नैमित्तिक कहना व्यवहार (उपचरित) कथन ही है, परमार्थ कथन नहीं।
यहाँ यह प्रश्न होता है कि ऐसे उपचरित कथनको परमागममें स्थान क्यों दिया गया है और उस आधारसे कार्य कारणभावकी व्यवस्था क्यों की गई है ? समाधान यह है कि इस द्वारा परमार्थकी प्रसिद्धि होती है इस प्रयोजनको ध्यानमें रखकर परमागममें इस उपचरित कथन को स्थान दिया गया है। इसकी पुष्टि स्थापना निक्षेप द्वारा सम्यक प्रकारसे होती है। ध्यान मद्रामें स्थापित मति स्वयं पंचपरमेष्ठी नह है, किन्तु उपचारसे हम उसमें यथा प्रयोजन पंचपरमेष्ठीकी कल्पनाकर उनकी आराधना करते रहते हैं । यहाँ जिस प्रकार जिनबिम्ब और पुण्यभावमें परस्पर निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध बतलाया गया है उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए क्योंकि अन्वय-व्यतिरेकके आ-रपर कार्य-कारण सम्बन्धकी प्रक्रिया सर्वत्र एक प्रकारसे ही "स्वीकार की गई है। फिर चाहे जिसमें निमित्त व्यवहार किया जाता है वह अपनी हलन-चलन रूप क्रिया व्यापारके द्वारा निमित्त हो रहा हो या बुद्धिपूर्वक क्रिया व्यापारके द्वारा निमित्त हो रहा हो या अन्य प्रकारसे निमित्त हो रहा हो । इतना सुनिश्चित है कि किसी भी कार्य के होनेमें उससे भिन्न जिसमें विभिन्न व्यवहार
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