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जिनागमके परिप्रेक्ष्य में जिनमन्दिर प्रवेश शूद्र जिनमन्दिरमें जाएं इसका कहीं निषेध नहीं
आगम और युक्तिसे यह सिद्ध है कि अन्य वर्णवाले मनुष्योंके समान शूद्रवर्ण के मनुष्य भी जिनमन्दिरमें जाकर दर्शन और पूजन करनेके अधिकारी हैं। जिस धर्ममें मन्दिरमें जाकर दर्शन और पूजन करनेकी योग्यता तिर्यञ्चोंमें मानी गई हो, उसके अनुसार शूद्रोंमें इस प्रकारकी योग्यता न मानी जाये, यह नहीं हो सकता । कुछ समय पूर्वतक दस्साओंको मन्दिरमें जानेका निषेध था। किन्तु सत्य बात जनताकी समझमें आ जानेसे यह निषेधाज्ञा उठा ली गई है। जब निषेधाज्ञा थी, तब दस्साभाई मन्दिर में जाकर पूजा करनेकी पात्रता नहीं रखते थे, यह बात नहीं है। यह वास्तवमें धार्मिक विधि न होकर एक सामाजिक बन्धन था जो दूसरोंकी देखादेखी जैनाचारमें भी सम्मिलित कर लिया गया था। किन्तु यह ज्ञात होने पर कि इससे न केवल दूसरोंके नैसर्गिक अधिकारका अपहरण होता है, अपितु धर्मका भी घात होता है, यह बन्धन उठा लिया गया है। इसी प्रकार शूद्र मन्दिरमें नहीं जा सकते यह भी सामाजिक बन्धन है, योग्यतामूलक धार्मिक विधि नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि आगमके अनुसार तो सबके लिए समवसरणके प्रतीकरूप जिनमन्दिरका द्वार खुला हुआ है। वह न कभी बन्द होता है और न कभी बन्द किया जा सकता है, क्योंकि जिनमन्दिरमें जाकर
और जिनदेवके दर्शन कर अन्य मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके समान वे भी जिनदेवके दर्शन द्वारा आत्मानुभूति कर सकते हैं। यही कारण है कि आगममें कहीं भी शूद्रोंके मन्दिर प्रवेश निषेधरूप वचन नहीं मिलता।
वैदिक परम्परामें शूद्रोंको धर्माधिकारसे वञ्चित क्यों किया गया है, इसका एक कारण है। बात यह है कि आर्योंके भारतवर्ष में आनेपर यहाँके मनुष्योंको जीत कर जिनको उन्होंने दास बनाया था उनको ही उन्होंने शूद्र शब्द द्वारा सम्बोधित किया था। वे आर्योकी बराबरीसे सामाजिक अधिकार प्राप्त न कर सकें, इसलिए उन्हें धर्माधिकार (सामाजिक धर्माधिकार) से वञ्चित किया गया था। किन्तु जैनधर्म न तो सामाजिक धर्म है और न ही इसका दृष्टिकोण किसीको दासभावसे स्वीकार करनेका ही है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्रमें परिग्रहपरिमाणवतका निर्देश करनेके प्रसङ्गसे दास और दासी ये शब्द आये हैं और इस व्रतमें उनका परिमाण करनेकी भी बात कही गई है। किन्तु उसका तात्पर्य किसीको दास-दासी बनानेका नहीं है। जो मनुष्य पहले दास-दासी रखे हुए थे, वे जैन उपासककी दीक्षा लेते समय परिग्रहके समान उनका भी परिमाण कर लें और शेषको दास-दासीके कार्यसे मुक्त कर नागरिकताके पूरे अधिकार दे दें। साथ ही वे ही गहस्थ जब समस्त परिग्रहका त्याग करें या परिग्रहत्याग-प्रतिमा पर आरोहण करने लगें, तब चाहे दासी-दास हों या अन्य कोई सबको समान भावसे नागरिक समझें और धर्ममें उच्चसे उच्च नागरिकका जो अधिकार है, वही अधिकार सबका माने यह भी उसका तात्पर्य है। प्राचीन कालमें जो नागरिक सामाजिक अपराध करते थे उनमेंसे अधिकतर दण्डके भयसे घर छोड़कर धर्मकी शरणमें चले जाते थे, यह प्रथा प्रचलित थी। ऐसे व्यक्तियोंको या तो बौद्धधर्म में शरण मिलती थी या जैनधर्ममें । बुद्धदेवके सामने इस प्रकारका प्रश्न उपस्थित होने पर उत्तरकालमें उन्होंने तो यह व्यवस्था दी कि यदि कोई सैनिक सेनामेंसे भाग आवे या कोई सामाजिक अपराध
१. देखो मनुस्मति अ०४ श्लोक ८० आदि ।
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