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सोनगढ़ और जैनतत्वमीसांसा
सोनगढ़ को लक्ष्य कर सोनगढ़के विरोधी कतिपय पत्रोंमें टीका-टिप्पणी होती रहती है । इसके अन्य कई कारण हैं, पर मैं उन सबकी इस लेखमें चर्चा नहीं करूँगा । जहाँ तक शस्त्रीय दृष्टिसे विचार करने की बात है उसके ये तीन मुख्य कारण प्रतीत होते हैं-
१. सोनगढ़ कार्य-कारण भावको स्वीकार नहीं करता ।
२. सोनगढ़ व्यवहार धर्मको रागरूप बतलाता है ।
३ सोनगढ़ व्यवहार धर्मका निषेध करता है ।
यहाँ सोनगढ़ को दृष्टिमें रखकर इन्हीं तीनों बातों पर विचार करना है
१. परमागममें कार्य-कारण भावका ऊहापोह दो प्रकारसे किया गया है— उपादान- उपादेय दृष्टिसे और निमित्त नैमित्तिक दृष्टिसे । विरोधी पत्रोंमें अभी तक जितने भी लेख मेरे देखने में आये हैं, उनमें उपादानउपादेय भावको तो प्रायः स्पर्श ही नहीं किया जाता है यदि कार्य-कारण भावका ऊहापोह करते समय बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारकी सामग्री के आधारसे कार्यका विचार किया जाय तो रुपयामें पन्द्रह आना समस्या सुलझ जाय । तब केवल एक मात्र इतना ही विचार करना शेष रह जाय कि बाह्य सामग्री के रहते हुए भी जीवन में ऐसी क्या कमी रह जाती है जिससे स्वयं जीव उपादान बनकर मिथ्यात्वादिके अभावपूर्वक सम्यग्दर्शनादि परिणामको नहीं उत्पन्न कर पाता ।
मोक्षमार्गका प्रारम्भ अबुद्धिपूर्वक होता है इसे मेरे ख्यालमें न तो परमागम ही स्वीकार करता है और न विरोधी विद्वान् ही मानते होंगे । चाहे देव, गुरु और शास्त्र आदिकी भक्ति आदि रूप कार्य हों, चाहे निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्तिरूप कार्य हो, होता है इन दानोंका प्रारम्भ बुद्धि पूर्वक ही । अब विचार कीजिए कि कुदेवादिकी भक्ति-पूजा आदिरूप गृहीत मिथ्यात्वका बुद्धिपूर्वक त्यागकर मात्र सच्चे देवादिककी ही शरण स्वीकार करता है, या उसके साथ गृहस्थ और मुनिके आचारको सम्यक् प्रकारसे पालता है उसे निश्चय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी या श्रावक और मुनिके अनुरूप निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति उस बाह्य कारणोंके होनेपर भी नियमसे क्यों नहीं होती ? यह अनियम होनेका कारण क्या है ? यदि विरोधी विद्वान् इस लक्ष्यपर गम्भीरता से विचार करने लगें और इस मुख्य कारणको दृष्टि ओझल न कर उक्त कारणके अनुसन्धानमें लग जायँ तो उन्हें सोनगढ़ की प्ररूपणाकी यथार्थता भी समझ में आने लगे ।
निश्चय रत्नत्रय जीवका स्वाश्रित भाव है और व्यवहार रत्नत्रय जीव का पराश्रित भाव है । आशय यह है कि जब यह जीव बुद्धिपूर्वक होनेवाले पराश्रित शुभाशुभ अन्य सब विकल्पोंसे निवृत्त होकर भी श्री समयसार आदि द्रव्यानुयोग में बतलाए गए निज स्वरूपकी ओर अपने उपयोगको मोड़कर उसमें उपयुक्त होता है, तब उसे यथायोग्य निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है । यदि उक्त जीव गृहीत मिथ्यात्वका बुद्धिपूर्वक त्यागकर तथा सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की श्रद्धा सम्पन्न होकर अव्रती श्रावकके अनुरूप जैनाचारका पालन करने वाला है तो स्वात्मोन्मुख होनेपर वह स्वानुभूति स्वरूप निश्चय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करता है, इसके अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभका अभाव हो जानेसे अंशतः वीतरागता भी प्रगट हो जाती है । यदि उक्त जीव चरणानुयोगके अनुसार अणुव्रतोंका पालन करने वाला है तो स्वात्मोन्मुख होनेपर
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