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चतुर्थ खण्ड : ५२५
कर्म उद्भूत होते हैं । आचार्य अमितिगतिने इस सत्यको हृदयंगम किया था। तभी तो उन्होंने आचार्य जिनसेन द्वारा प्ररूपित छह कर्मों से वार्ताके स्थानमें गुरूपास्ति रखकर यह सूचित किया कि ये तीन वर्णके कार्य न होकर गृहस्थोंके कर्तव्य है । उन्होंने गुहस्थके जिन छह कर्मोंकी सूचना दी है वे हैं
देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने । पण्डितप्रवर आशाधरजीने अपने सागारधर्मामृत, (अध्याय १ श्लो० १८) में इस प्रकारका संशोधन तो नहीं किया है । उन्होंने वार्ताके स्थानमें उसे ही रहने दिया है। परन्तु उसे रखकर भी वे उससे केवल असि, मषि, कृषि और वाणिज्य इन चार कर्मोसे अपनी आजीविका करनेवालोंको ग्रहण न कर सेवाके सा अपनी आजीविका करनेवालोंको स्वीकार कर लेते हैं । और इस प्रकार इस संशोधन द्वारा वे भी यह सूचित करते हैं कि देवपजा आदि कार्य तीन वर्णके कर्तव्य न होकर गृहस्थधर्मके कर्तव्य हैं। फिर चाहे वह गृहस्थ किसी भी कर्मसे अपनी आजीविका क्यों न करता हो। इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तरकालवर्ती जितने भी साहित्यकार हुए हैं, प्राय उन्होंने भी यही स्वीकार किया है कि जिनमन्दिरमें जाकर देवपूजा आदि कार्य जिस प्रकार ब्राह्मण आदि तीन वर्णका गृहस्थ कर सकता है, उसी प्रकार चाण्डाल आदि शूद्र गृहस्थ भी कर सकता है। आगममें इससे किसी प्रकारको बाधा नहीं आती। और यदि किसीने कुछ प्रतिबन्ध लगाया भी है, तो उसे सामयिक परिस्थितिको ध्यानमें रखकर सामाजिक ही समझना चाहिए। आगमकी मनसा इस प्रकारकी नहीं है, यह सुनिश्चित है ।
इस प्रकार शास्त्रीय प्रमाणोंके प्रकाशमें विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि शूद्रोंको श्री जिनमन्दिरमें जाने और पूजन-पाठ करनेका कहीं कोई निषेध नहीं है । महापुराणमें इज्या आदि षट्कर्म करनेका अधिकार जो तीन वर्णके मनुष्योंको दिया गया है, उसका रूप सामाजिक है धार्मिक नहीं और उद्देश्य व अभिप्रायकी दृष्टिसे सामाजिक विधिविधान तथा धार्मिक विधिविधानमें बड़ा अन्तर है, क्योंकि क्रिया एक प्रकारकी होनेपर भी दोनोंका फल अलग-अलग है। ऐसी अवस्थामें आचार्य जिनसेन द्वारा महापुराणमें कौलिक दृष्टिसे किये गये सामाजिक विधिविधानको आत्मशुद्धिमें सहायक मानना तत्त्वका अपलाप करना है। यद्यपि इस दृष्टिसे भगवद्भक्ति करते समय भी पूजक यह भावना करता हुआ देखा जाता है कि मेरे दुःखोंका क्षय हो, कर्मोंका क्षय हो, समाधिमरण हो, रत्नत्रयकी प्राप्ति हो और मैं उत्तम गति जो मोक्ष उसे प्राप्त करूँ । जलादि द्रव्यसे अर्चा करते समय वह यह भी कहता है कि जन्म, जरा और मृत्यु का नाश करनेके लिए मैं जलको अर्पण करता हैं, आदि। किन्तु ऐसी भावना व्यक्त करने मात्रसे वह क्रिया मोक्षमार्गका अङ्ग नहीं बन सकती, क्योंकि जो मनुष्य उक्त विधिसे पूजा कर रहा है, उसकी आध्यात्मिक भूमिका क्या है, प्रकृतमें यह बात मुख्यरूपसे विचारणीय हो जाती है।
यदि भगवद्भक्ति करनेवाला कोई व्यक्ति इस अभिप्रायके साथ जिनेन्द्रदेवकी उपासना करता है कि 'यह मेरा कौलिक धर्म है, मेरे पूर्वज इस धर्मका आचरण करते आये हैं, इसलिए मुझे भी इसका अनुसरण करना चाहिए । मेरा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुलमें जन्म हुआ है, अतः मैं ही इस धर्मको पूर्णरूपसे पालन करने
धिकारी हैं। जो शूद्र हैं वे इस धर्मका उस रूपसे पालन नहीं कर सकते, क्योंकि वे नीच है । यह मन्दिर भी मैंने या मेरे पूर्वजोंने बनवाया है, इसलिए मैं इसमें मेरे समान आजीविका करनेवाले तीन वर्णके मनष्योंको ही प्रवेश करने दूंगा, अन्यको नहीं । अन्य व्यक्ति यदि भगवद्भक्ति करना ही चाहते हैं, तो वे मन्दिरके बाहर
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