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चतुर्थ खण्ड : ५२३ आश्रयसे बैठे हैं। ये सब आर्य विद्याधर हैं। इनका मैंने संक्षेपमें कथन किया । हे स्वामिन् ! अब मैं मातङ्ग (चाण्डाल) निकायके विद्याधरोंका कथन करती हूँ । सुनो ! नीले मेघोंके समान नील वर्ण तथा नीले वस्त्र और माला पहिने हुए ये मातङ्ग निकायके विद्याधर मातङ्ग नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। श्मशानसे प्राप्त हुई हड्डी और चमड़ेके आभूषण पहिने हुए तथा शरीरमें भस्म पोते हुए ये श्मशाननिलय निकायके विद्याधर श्मशान नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। नील वैडूर्य रंगके वस्त्र पहिने हुए ये पाण्डुरनिकायके विद्याधर पाण्डुरनामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। कालहिरणके चर्मके वस्त्र और माला पहिने हुए ये कालस्वपाकी निकायके विद्याधर कालनामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। पिङ्गल केशवाले और तप्त सोनेके रंगके आभषण पहिने हुए ये श्वपाकी निकायके विद्याधर श्वपाकीनामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। पर्णपत्रोंसे आच्छादित मुकुटमें लगी हुई नानाप्रकारकी मालाओंको धारण करनेवाले ये पार्वतेय निकायके विद्याधर पार्वत नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। बाँसके पत्तोंके आभूषण और सब ऋतुओंमें उत्पन्न होनेवाले फूलोंकी मालाएँ पहिने हुए ये वंशालय निकायके विद्याधर वंशनामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं। महाभुजंगोंसे शोभायमान उत्तम आभूषणोंको पहिने हुए ये ऋअमूक निकायके विद्याधर ऋक्षमूलकनामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं।" ।
यह हरिवंशपुराणका उल्लेख है। इसमें ऐसे विद्याधर निकायोंकी भी चर्चा की गई है जो आर्य होनेके साथ-साथ सभ्य मनुष्योचित उचित वेशभूषाको धारण किये हुए थे और ऐसे विद्याधर निकायोंकी भी चर्चा की गई है जो अनार्य हो नेके साथ-साथ चाण्डाल कर्म से भी अपनी आजीविका करते थे तथा हड्डियों
और चमड़ों तकके वस्त्राभूषण पहिने हुए थे। यह तो स्पष्ट है कि विद्याधर-लोक में सदा कर्मभूमि रहती है, इसलिए वहाँके निवासी असि आदि षट्कर्मसे अपनी आजीविका तो करते ही है। साथ ही उनमे कुछ ऐसे विद्याधर भी होते हैं जो श्मशान आदिमें शवदाह आदि करके, मरे हुए पशुओंकी खाल उतारकर और हड्डियोंका व्यापार करके तथा इसी प्रकारके और भी निकृष्ट कार्य करके अपनी आजीविका करते हैं । इतना सब होते हुए भी वे दूसरे विद्याधरोंके साथ जिनमन्दिरमें जाते हैं, सब मिलकर पूजा करते हैं और अपने-अपने मुखियोंके साथ बैठकर परस्परमें धर्मचर्चा करते हैं । यह सब क्या है ? क्या इससे नहीं होता कि किसी भी प्रकारकी आजीविका करनेवाला तथा निकृष्टसे निकृष्ट वस्त्राभूषण पहिननेवाला व्यक्ति भी मोक्षमार्गके अनुरूप धार्मिक प्राथमिक कृत्य करने में आजाद है। उसकी जाति और वेशभूषा उसमें बाधक नहीं होती। जिन आचार्योंने सम्यग्दर्शनको धर्मका मूल कहा है और यह कहा है कि जो त्रस और स्थावर वधसे विरत न होकर भी जिनोक्त आज्ञाका श्रद्धान करता है, वह सम्यग्दृष्टि है। उनके उस कथनका एकमात्र यही अभिप्राय है कि केवल किसी व्यक्तिकी आजीविका, वेश-भूषा और जातिके आधारपर उसे धर्मका आचरण करनेसे नहीं रोका जा सकता। यह दूसरी बात है कि वह आगे-आगे जिस प्रकार व्रत, नियम
और यमको स्वीकार करता जाता है, उसी प्रकार उत्तरोत्तर उसका हिंसाकर्म छूटकर विशुद्ध आजीविका होती जाती है, तथा अन्तमें वह स्वयं पाणिपात्रभोजी बनकर पूरी तरहसे आत्मकल्याण करने लगता है और अन्य प्राणियोंको आत्मकल्याण करने का मार्ग प्रशस्त करता है। वे पुरुष जिन्होंने जीवन भर हिंसादि कर्म करके अपनी आजीविका नहीं की है, सब के लिए आदर्श और वन्दनोय तो हैं ही। किन्तु जो पुरुष प्रारम्भमें हिंसादि कर्म करके अपनी आजीविका करते हैं और अन्तमें उससे विरक्त हो मोक्षमार्गके पथिक बनते हैं, वे भी सबके लिए आदर्श और वन्दनीय है। अन्य प्रमाण
इस प्रकार हरिवंशपुराण के आधारसे यह ज्ञात हो जानेपर भी कि चाण्डालसे लेकर ब्राह्मण तक
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