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५२४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रत्येक मनुष्य जिन मन्दिरमें प्रवेश कर जिनपूजा आदि धार्मिक कृत्य करनेके अधिकारी हैं, यह जान लेना आवश्वक है कि क्या मात्र 'हरिवंशपुराण'के उक्त उल्लेखसे इसकी पुष्टि होती है या कुछ अन्य प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं जो इसकी पुष्टिमें सहायक माने जा सकते है। यह तो स्पष्ट है कि 'महापुराणकी' रचनाके पूर्व किसीके सामने इस प्रकारका प्रश्न हो उपस्थित नहीं हुआ था, इसलिए महापुराणके पूर्ववर्ती किसी आचार्यने इस दृष्टिसे विचार भी नहीं किया है। शद्र सम्यग्दर्शनपूर्वक श्रावक-धर्मको तो स्वीकार करे, किन्तु वह जिनमन्दिर में प्रवेश कर जिनेन्द्रदेवकी पूजन-स्तुति न कर सके, यह बात बुद्धिग्राह्य तो नहीं है । फिर भी, जब महापुराणके कर्ता आचार्य जिनसेनने जैनधर्मको वर्णाश्रमधर्मके साँचेमें ढालकर यह विधान किया कि इज्यादि षट्कर्म करनेका अधिकार एकमात्र तीन वर्णके मनुष्यको है, शूद्रको नहीं; तब उत्तरकालीन कतिपय लेखकोंको इस विषयपर विशेष ध्यान देकर कुछ-न-कुछ अपना मत बनाना ही पड़ा है। उत्तरकालीन साहित्यकारोंमें इस विषयको लेकर जो दो मत दिखलाई देते हैं, उसका कारण यही है । सन्तोषकी बात इतनी ही है कि उनमें से अधिकतर साहित्यकारोंने देवपूजा आदि धार्मिक कार्योको तीन वर्णके कर्तव्योंमें परिगणित न करके श्रावक धर्मके कार्यों में ही परिगणित किया है और इस तरह उन्होंने आचार्य जिनसेनके कथनके प्रति अपनी असहमति ही व्यक्त की है। सोमदेवसूरि नीतिवाक्यामृतमें कहते हैं
आचारानवद्यत्वं शुचिरुपस्करः शारीरी च विशुद्धिः करोति शूद्रमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मसु योग्यम् ।
तात्पर्य यह है कि जिस शूद्रका आचार निर्दोष है तथा घर, पात्र और शरीर शुद्ध है, वह देव, द्विज और तपस्वियोंकी भक्ति पूजा आदि कर सकता है ।
नीतिवाक्यामृतके टीकाकार एक अजैन विद्वान् है । उन्होंने भी उक्त वचनकी टीका करते हुए एक श्लोक उद्धृत किया है । श्लोक इस प्रकार है
गृहपात्राणि शुद्धानि व्यवहारः सुनिर्मलः ।
कायशुद्धिः करोत्येव योग्यं देवादिपूजने ॥ श्लोकका अर्थ वही है जो नीतिवाक्यामृतके वचनका कर आये हैं। इस प्रकार सोमदेवसूरिके सामने
बार उपस्थित होनेपर कि शद्र जिनमन्दिरमें जाकर देवपूजा आदि कार्य कर सकता है या नहीं? उन्होंने अपना निश्चित मत बनाकर यह सम्मति दी थी कि यदि उसका व्यवहार सरल है और उसका घर, वस्त्र तथा शरीर आदि शुद्ध है, तो वह मन्दिरमें जाकर देवपूजा आदि कार्य कर सकता है।
यहाँपर इतना स्पष्ट जान लेना चाहिए कि सोमदेवसूरिने इस प्रश्नको धार्मिक दृष्टिकोणसे स्पर्श न करके ही यह समाधान किया है, क्योंकि धार्मिक दृष्टिसे देवपूजा आदि कार्य कौन करे, यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । कारण कि कोई मनुष्य ऊपरसे चाहे पवित्र हो और चाहे अपवित्र हो, वह पञ्चपरमेष्ठीकी भक्ति, विनय और पूजा करनेका अधिकारी है। यदि किसीने पञ्चपरमेष्ठीको भक्ति, वि पूजा की है, तो वह भीतर और बाहर सब तरफसे शुद्ध है और नहीं की है, तो वह न तो भीतरसे शुद्ध है और न बाहरसे ही शुद्ध है। हम भगवद्भक्ति या पूजाके प्रारम्भमें 'अपवित्रः पवित्रो वा' इस आशयके दो श्लोक पढ़ते हैं, वे केवल पाठमात्रके लिए नहीं पढ़े जाते हैं । स्पष्ट है कि धार्मिक दृष्टिकोण इससे भिन्न है। वह न तो व्यक्तिके कर्मको देखता है और न उसकी बाहरी पवित्रता और अपवित्रताको ही देखता है । यदि वह देखता है तो एकमात्र व्यक्तिकी श्रद्धाको, जिसमेंसे भक्ति, विनय, पूजा और दान आदि सब धार्मिक
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