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५२२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
करनेके बाद धर्मकी शरण में आया हो तो उसे बुद्धधर्म में दीक्षित न किया जाय, परन्तु जैनधर्मने व्यक्ति के इस नागरिक अधिकारपर भूलकर भी प्रतिबन्ध नहीं लगाया है। इसका कारण यह नहीं है कि वह दोषको प्रश्रय देना चाहता है । यदि कोई इस पर से ऐसा निष्कर्ष निकाले भी तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल होगी । वृक्षको काटनेवाला व्यक्ति यदि आतपसे अपनी रक्षा करनेके लिए उसी वृक्षकी छायाकी शरण लेता है, तो यह वृक्षका दोष नहीं माना जा सकता । ठीक यही स्थिति धर्मकी है । काम, क्रोध, मद, मात्सर्य और मिथ्यात्वके कारण पराधीन हुए जितने भी संसारी प्राणी हैं, वे सब धर्मकी जड़ काटनेमें लगे हुए हैं । जो तथाकथित शूद्र हैं वे तो इस दोषसे बरी माने हो नहीं जाते, लौकिक दृष्टिसे जो उच्चवर्णी मनुष्य हैं वे भी इस दोषसे बरी नहीं हैं । तीर्थङ्करोंने व्यक्ति के जीवनमें वास करनेवाले इस अन्तरङ्ग मलको देखा था । फलस्वरूप उन्होंने उसीको दूर करनेका उपाय बतलाया था । शरीर और वस्त्रादिमें लगे हुए बाह्यमलका शोधन तो पानी, धूप, हवा और साबुन आदिसे भी हो जाता है । परन्तु आत्मामें लगे हुए उस अन्तरङ्ग मलको धोनेका यदि कोई उपाय है तो वह एकमात्र धर्म ही है । ऐसी अवस्थामें कोई तीर्थङ्कर यह कहे कि हम इस व्यक्ति के अन्तरङ्ग मलको धोनेके लिए इस व्यक्तिको तो अपनी शरणमें आने देंगे और इस व्यक्तिको नहीं आने देंगे, यह नहीं हो सकता । स्पष्ट है कि जिस प्रकार ब्राह्मण आदि उच्च वर्णवाले मनुष्यों को जिनमन्दिरमें जाकर पञ्चपरमेष्ठीकी आराधना करने का अधिकार है, उसी प्रकार शूद्रवर्णके मनुष्योंको भी किसी भी धर्मायतनमें जाकर सामायिक, प्रमुख भगवद्भक्ति, स्तवन, पूजन और स्वाध्याय आदि करनेका अधिकार है । यही कारण है कि बहुत प्रयत्न करनेके बाद भी हमें किसी भी शास्त्रमें 'शूद्र जिनमन्दिरमें जानेके अधिकारी नहीं हैं' इसका समर्थन करनेवाला वचन उपलब्ध नहीं हो सका । हरिवंशपुराणका उल्लेख
यह जैनधर्मका हार्द हैं | अब हम हरिवंशपुराणका एक ऐसा उल्लेख उपस्थित करते हैं, जिससे इसकी पुष्टि होनेमें पूरी सहायता मिलती है । बलभद्र विविध देशोंमें परिभ्रमण करते हुए विद्याधर लोकमें जाते हैं और वहाँ पर बलि विद्याधर के वंशमें उत्पन्न हुए विद्युद्वेगकी पुत्री मदनवेगा के साथ विवाह कर सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगते हैं । इसी बीच सब विद्याधरोंका विचार सिद्धकूट जिनालयकी वन्दनाका होता है । यह देखकर बलदेव भी मदनवेगाको लेकर सबके साथ उसकी वन्दना के लिए जाते हैं । जब सब विद्याधर जिनपूजा और प्रतिमागृहकी वन्दना कर अपने-अपने स्थान पर बैठ जाते हैं, तब बलदेवके अनुरोध करने पर मदनवेगा सब विद्याधर निकायोंका परिचय कराती है। वह कहती है- ' जहाँ हम और आप बैठे हैं इस स्तम्भके आश्रय से बैठे हुए तथा हाथ में कमल लिए हुए और कमलोंकी माला पहिने हुए ये गौरक नामके विद्याधर हैं । लाल मालाको धारण किये हुए और लाल वस्त्र पहिने हुए ये गान्धार विद्याधर गान्धार नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । नाना प्रकारके रंगवाले सोनेके रंगके और पीत रंगके रेशमी वस्त्र पहिने हुए ये मानवपुत्रक निकायके विद्याधर मानव नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । कुछ आरक्त रंगके वस्त्र पहिने हुए और मणियों के आभूषणोंसे सुसज्जित ये मनुपुत्रक निकाय के विद्यावर मान नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । नाना प्रकारकी औषधियोंको हाथ में लिए हुए तथा नाना प्रकार आभरण और मालाओंको पहिने हुए ये मूलवीर्य निकायके विद्याधर औषधि नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । सब ऋतुओंके फूलोंसे सुवासित स्वर्णमय आभरण और मालाओंको पहिने हुए ये अन्तर्भूमिचर निकायके विद्याधर भूमिमण्डक नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । नाना प्रकारके कुण्डलों और नागाङ्गदों तथा आभूषणोंसे सुशोभित ये शंकुक निकायके विद्याधर शंकु नामक स्तम्भके आश्रयसे बैठे हैं । मुकुटों को स्पर्श करनेवाले मणिकुण्डलोंसे सुशोभित ये कौशिक निकायके विद्याधर कौशिक नामक स्तम्भके
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