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चतुर्थ खण्ड : ५१९ आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं और दूसरे वे जो समाजको उच्छृखल होनेसे बचाकर उसकी सीमाओंकी रक्षा करते हैं।
३. लौकिक ख्याति एक बला है। इसके प्रलोभनमें पड़ कर कभी-कभी एक विद्वान् अपने दूसरे साथी को पीछे धकेलता हुआ देखा जाता है। यह हम अच्छी तरहसे जानते है कि ऐसी वृत्तिसे स्थायी लाभ नहीं होता, प्रत्युत कालान्तरमें यह विस्फोटका बहुत बड़ा कारण बन जाता है। यह तो हम मानते हैं कि जो व्यक्ति कर्तव्यशील है, व्याख्याता है और नेतृत्व करनेकी क्षमता रखता है, उसे आगे बढ़नेसे कोई भी शक्ति नहीं रोक सकती। पर व्यक्तित्वकी एक मर्यादा होती है। यदि कोई व्यक्ति उस मर्यादाका उल्लंघन करता है, तो ये समस्त गुण दोषमें परिणत हो जाते हैं। वर्तमान कालमें प्रायः सब विद्वानोंने पूज्य १०५ गुरुवर्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णीका नेतृत्व स्वीकार किया है। इसलिए हमें आँख खोलकर देखना चाहिए कि उनमें वह कौन-सा गुणविशेष है जिसके कारण हम उन्हें अपना केन्द्र बनाते हैं। जहाँ तक हमने उनके दैनिक व्यवहारको देखा है वे किसी भी सामाजिक कार्यकर्ता या विद्वानके उनके समक्ष पहुँचने पर उसे हर प्रकारसे समाजके सम्पर्कमें लानेका प्रयत्न करते हैं। इतना ही नहीं, उसमें यदि कोई अच्छाई उन्हें दिखाई देती है, तो वे उसे जनताके समक्ष रखनेमें भी नहीं हिचकिचाते । वह किस मतको माननेवाला है, इस बातको वे अपने जीवनमें स्थान नहीं देते हैं।
४. हममें कुछ ऐसे भी मनीषी है जो विवेकको छोड़कर मात्र समाजके अनुवर्तनमें अपना लाभ देखते हैं । नेतृत्व किसके हाथमें रहे, इसके लिए सदासे प्रयत्न होता आया है। आज भी यह समस्या सबके सामने है । इस समय साधन और श्रमके मध्य नेतृत्वकी जो होड़ चल रही है, उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा, हम नहीं कह सकते। पर जहाँ तक हमारे सांस्कृतिक दृष्टिकोणका प्रश्न है, सब मामलोंमें त्याग और विवेकसे काम लिए जानेकी आवश्यकता है। इसलिए हमें साधन और श्रमका उचित आदर करते हुए विवेकको ही प्राधान्य देना है और यह तभी हो सकता है जब ऐसे विद्वान् अपमा दृष्टिकोण बदलें। विद्वान् समाजके मुख
और हाथ-पाँव सब कुछ हैं। इस बदली हई परिस्थितिमें तो उन्हें इस मामलेमें और भी गम्भीरतापूर्वक विचार करना है। ऐसा न हो कि हममेंसे कतिपय विद्वानोंके समाजका अन्धानुकरण करनेके कारण विवेकका बल उत्तरोत्तर घटता जाय और त्याग तथा विवेकमय इस परम्पराके अन्त होनेका दुर्दिन हमें देखना पड़े।
५. हममें एक दोष गुटबन्दीका भी दिखाई देता है। समाज और संस्कृतिके हितमें किसी कार्यक्रमको पूरा करनेके लिए संगठनकी आवश्यकताको हम अनुभव करते है। किन्तु जब कार्यक्रमके विषयमें किसी प्रकार का मतभेद न होने पर भी हम गुटबन्दी करते हैं और अपने गुटके व्यक्तिको छोड़ कर अन्यका अनादर करने पर उतारू हो जाते हैं, तब उसे शुद्ध स्वार्थपूर्तिके सिवाय और क्या कहा जा सकता है । इस दोषके कारण हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक प्रवृत्तिको जो हानि पहुँच रही है, वह किसीसे छिपी हुई नहीं है । इस कारण विद्वानोंका बल घटता है, यह बात स्पष्ट है।
ये चन्द ऐसे दोष हैं जो हमारे संगठनको पूरा नहीं होने देते हैं। प्रत्येक विद्वान्का ध्यान इस ओर जाय और वह इन दोषोंको दूर करने में सक्रिय सहयोग करके विद्वत्परिषद्के संगठनको दृढ़ करने में सहायक बने, इस पुनीत अभिप्रायको ध्यानमें रखकर ही हमने यहाँ इनकी विस्तृत चर्चाकी है। क्योंकि हम यह बहुत ही अच्छी तरह जानते हैं कि वर्तमान कालमें विश्वकी बात छोड़िए, भारतवर्षमें जो सामाजिक और सांस्कृतिक क्रान्तिके होनेके लक्षण दिखाई दे रहे हैं, उनमें हमें समुचित स्थान ग्रहण करनेके लिए प्रयत्नशील होना है ।
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