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५१८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
बढ़ानेमें सहायता करना और जिन कार्योके करनेसे एक विद्वानको दूसरे विद्वानके विषयमें शंका उत्पन्न होना सम्भव है उन कार्योसे अपनेको दर रखना आदि ।
ये संगठनके कुछ आधारभूत सिद्धान्त है जो व्यक्तिके जीवनमें तो उपयोगी हैं ही, सार्वजनिक क्षेत्रमें भी उपयोगी हैं। इनको जीवनमें स्वीकार कर लेने पर भी अधिकतर मनीषियों द्वारा कार्यक्षेत्रमें कुछ ऐसी भूलें होती हैं जो परस्परके मनोमालिन्यका कारण बन जाती हैं। मेरी समझसे यहाँ उनकी स्पष्ट चर्चा कर लेना अनुचित न होगा।
१. प्रायः कुछ व्यक्तियोंमें यह मनोवृत्ति देखी जाती है कि जिस संस्थासे उनका निकट सम्बन्ध होता है, मात्र उसीके लिए वे प्रयत्न करते हैं। वे उस संस्थाकी उन्नतिमें लगे रहें, यहाँ तक तो ठीक है, क्योंकि उसकी उन्नति और सञ्चालनका भार उनपर अवलम्बित है । परन्तु इसके साथ वे दूसरा कार्य यह
उनकी उपस्थितिमें अन्य संस्थाके लिए कोई प्रयत्न होता है, तो वे प्रत्यक्ष या परोक्षमें किसी-न किसी प्रकारसे उसको धक्का पहुँचानेमें जरा भी संकोच नहीं करते। मेरी समझमें इस प्रकारकी मनोवृत्ति सांस्कृतिक क्षेत्र में हितावह नहीं मानी जा सकती। वस्तुतः जितनी भी सार्वजनिक संस्थाएँ कार्य कर रही हैं वे सब एक ही सांस्कृतिक उद्देश्यकी पूर्तिके लिए स्थापित की गई है, इसलिए वे एक है। यदि हम किसी अन्य संस्था या उसके कार्यकर्ताकी निन्दा करते हैं, तो वह केवल उस संस्थाकी निन्दा न होकर हमारे सांस्कृतिक उददेश्यकी ही निन्दा होती है। ऐसा कौन विद्वान् होगा जो पूज्य श्री १०८ मुनि समन्तभद्रजी महाराज और पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णीको नहीं जानता होगा । इन दोनों महानुभावोंमें जो हमें सबसे बड़ी विशेषता दिखाई देती है वह यह कि इन दोनोंने अपने जीवन में कभी भी एक संस्थासे दूसरी संस्थामें भेद नहीं होने दिया । यदि जैनत्वके प्राणस्वरूप एक मन्दिरसे दूसरे मन्दिरमें भेद नहीं किया जा सकता, तो फिर संस्कृति का संरक्षण और संवर्द्धन करनेवाली एक संस्थासे दूसरी संस्थामें भेद कैसे हो सकता है ? यदि समाजके कुछ व्यक्ति इस प्रकारका भेद करते हैं तो करें, पर जिन विद्वानोंपर संस्कृति और समाजके संचालनका उत्तरदायित्व है वे ऐसे हलके विचारसे अपनेको बचाकर चलें, यही संस्कृति और समाजके हितमें उचित प्रतीत होता है।
२. प्रायः विद्वानोंमें कई विषयोमें मतभेद दिखाई देता है। किसी मतभेदका सम्बन्ध केवल आगमसे होता है और किसीका सम्बन्ध आगम और समाज दोनोंसे । जिसका सम्बन्ध मात्र आगमसे होता है, उसे तो हम सह लेते हैं। अथवा वह विशेष बुराईका कारण नहीं बनता । वस्तुतः मतभेद वहीं पर उग्र रूप धारण करता है जिसकी प्रतिक्रिया स्पष्टतः समाजमें दिखाई देती है। ऐसे समयमें अधिकतर विद्वान् अपने संतु खो बैठते हैं और अपने साथियोंपर आग बरसाना प्रारम्भ कर देते हैं। हम यह तो मानते हैं कि नया प्रतीत होता है, उसकी आलोचना होनी चाहिए। इतना ही नहीं, वह विचार सहसा कार्यान्वित न हो सके, इसके लिए प्रयत्न भी होना चाहिए । हमें इस विषयमें पूज्य पं० देवकीनन्दनजी सा० का स्मरण होता है। उनके जीवनमें हमें बड़ी विलक्षणता देखनेमें आ.। वे विचारक थे और सामाजिक कार्यकर्ता भी। जहाँ तक विचारका सम्बन्ध था, वे नाक-मुँह सिकोड़ना और इस आधारसे समाजको भड़काना जानते ही नहीं थे । विचारकके लिए उनके हृदयमें जो उच्च स्थान था, उससे कहीं अधिक वे सामाजिक कर्तव्यका अनुवर्तन करते थे । तत्काल समाजका ढाँचा क्या हो? इस विषयके ऊहापोहमें न पड़ कर हम इतना तो स्वीकार करते हैं कि द्रव्य, क्षेत्र और कालके अनुसार उसमें जो भी परिवर्तन हो वह सोच-समझकर ही होना चाहिए । इसलिए हमारी समझमें समाजके लिये दोनों प्रकारके मनुष्योंकी आवश्यकता है। एक वे जो मार्गदर्शन कराकर समाजको
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