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४७८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
इस अधिकारमें लौकिक गणितसे अलौकिक गणितके अन्तरका ज्ञान कराते हुए गुरुजी लिखते हैं कि 'लौकिक गणितसे स्थूल और स्वल्प पदार्थोंका परिमाण किया जाता है, किन्तु अलौकिक गणितसे सूक्ष्म और अनन्त पदार्थोंकी हीनाधिकताका बोध कराया जाता है ।'
गुरुजीने मानको दो भागों में विभक्त किया है - एक संख्यामान और दूसरा उपमान । संख्यामान के मूल भेद तीन है - संख्यात, असंख्यात और अनन्त । इनके उत्तर भेद इक्कीस हैं ।
एककी परिगणना संख्यातमें नहीं होती, क्योंकि एकमें करने पर लब्ध एक ही आता है, उसमें वृद्धि हानि नहीं होती, है । इतना अवश्य है कि गणना एकसे ही प्रारम्भ होती है । त्रिलोकसारका वचन भी है-
एकका भाग देने पर या एकको एकसे गुणा इसलिए संख्यातका प्रारम्भ दोसे माना गया
एयादीया गणना वीयादीया हवंति संखेज्जा | तीयादीणं णियभा कदि त्ति सण्णा मुणेयव्वा ॥
संख्यात मानके उक्त २१ भेदोंका त्रिलोकसारादि ग्रन्थोंके आधारसे विस्तार पूर्वक निरूपण करनेके बाद उपमामानका निरूपण किया है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने लिखा है- 'जो प्रमाण किसी पदार्थ की उपमा देकर कहा जाता है उसे उपमामान कहते हैं । उपमामानके आठ भेद हैं-- १. पल्योपम ( यहाँ पर पल्य अर्थात् खासको उपमा है), २. सागरोपम ( यहाँ पर लवण समुद्रकी उपमा है), ३. सूच्यंगुल, ४. प्रतरांगुल, ५. घनांगुल, ६. जगच्छ्रेणी, ७ जगत्प्रतर और ८. लोक । इन सबका विस्तृत विवेचन भी गुरुजीने उक्त ग्रन्थोंके आधारसे किया है ।
इस प्रकार अलौकिक गणितका निरूपण करनेके बाद अजीव द्रव्यके पाँचों उत्तर भेदोंका निरूपण किया गया है । साथ ही जीवद्रव्यका भी निर्देश कर दिया है। इसमें किस द्रव्यका क्या लक्षण है, कौन मूर्त है और कौन अमूर्त है, आकाशके कितने भेद हैं, लोकाकाश किसे कहते हैं और वह कहाँ हैं, संख्यामान से देखनेपर कौन द्रव्य कितने हैं, पुद्गलके उत्तर भेद कितने और किस प्रकार हैं, परमाणुका प्रमाण कितना है, अस्तिका और अस्तिकायका क्या तात्पर्य है आदि बातोंका संक्षेपमें स्पष्टीकरण करके यह अधिकार समाप्त किया गया है ।
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चौथे अधिकारका नाम है - पुद्गलद्रव्यनिरूपण ( पृ० १३५ से १५० तक ) । इसमें बतलाया है कि यद्यपि पुद्गलमें अनन्तगुण हैं, पर उनमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार गुण मुख्य हैं। ये चारों पुद्गलके आत्मभूत लक्षण हैं । आगे इन इन गुणोंके उत्तर भेदोंकी चरचा करके पुद्गलकी शब्द, बन्ध आदि दस व्यंजन पर्यायोंका निरूपण किया गया । उनमेंसे बन्ध पर्यायका निरूपण करते हुए बतलाया है कि 'बन्धके भी दो भेद हैं- एक स्वाभाविक और दूसरा प्रायोगिक । स्वाभाविक ( पुरुष प्रयोग अनपेक्षित) बन्ध दो प्रकार हैएक सादि और दूसरा अनादि । स्निग्ध- रूक्षगुणके निमित्त से बिजली, मेष, इंद्रधनुष आदिक स्वाभाविक सादिबन्ध है । अनादि स्वाभाविक बन्ध धर्म, अधर्म और आकाशद्रव्यों में एक एकके तीन-तीन भेद होनेसे नौ प्रकारका है ।'
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यहाँ गुरुजीने, जिसे आगममें विस्रसा बन्ध कहा गया है, उसे ही स्वाभाविक बन्ध कहा है । रागपूर्वक जो मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति होती है उसीका नाम पुरुषप्रयोग है ।
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