Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 536
________________ चतुर्थ खण्ड : ४९९ हैं । ५४वी गाथामें उदयसे उदीरणाके स्वामीमें कितनी विशेषता है इसका निर्देश करके ५५वीं गाथामें वे ४१ प्रकृतियाँ बतलाई है जिनमें विशेषता है। ५६वीं से लेकर ५९वीं तक ४ गाथाओं द्वारा किस गणस्थानमें कितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है यह बतलाया गया है। ६०वीं प्रतिज्ञा गाथा है। इसमें गति आदि मार्गणाओंमें बन्धस्वामित्वके जान लेनेकी प्रतिज्ञा की गई है। ६१वीं गाथामें यह बतलाया है कि तीर्थङ्कर प्रकृति, देवाय और नरकायु इनका सत्त्व तीन तीन गतियोंमें ही होता है। किन्तु इनके सिवा शेष प्रकृतियोंका सत्त्व सब गतियों में पाया जाता है । ६२वीं और ६३वीं गाथा द्वारा चार अनन्तानुबन्धी और तीन दर्शन मोहनीय इनके उपशमना और क्षपणाके स्वामीका निर्देश करके ६४वीं गाथा द्वारा क्रोधादि चारकी क्षपणाके विशेष नियमकी सूचना की गई है। अयोगीके द्विचरम समयमें किन प्रकृतियोंका क्षय होता है यह ६५वीं गाथामें बतलाया गया है । अयोगी जिन कितनी प्रकृतियोंका वेदन करते हैं यह ६६वीं गाथामें बतलाया गया है । ६७वीं गाथामें नामकर्मकी वे ९ प्रकतियाँ गिनाई हैं जिनका उदय अयोगीके होता है । अयोगीके अन्तिम समयमें कितनी प्रकृतियोंका उदय होता है यह ६८वीं गाथा बतलाती है। ६९वीं गाथामें अयोगीके अन्तिम समयमें जिन प्रकृतियोंका क्षय होता है उनका निर्देश किया है। आगे ७०वीं गाथामें सिद्धोंके सिद्ध सुखका निर्देश करके उपसंहार स्वरूप ७१वीं गाथा आई है और ७२वीं गाथामें लघुता प्रकट करके ग्रन्थ समाप्त किया गया है। यह ग्रन्थका संक्षिप्त परिचय है। अब आगे प्रकृतोपयोगी समझ कर कर्म तत्त्वका संक्षेपमें विचार करते हैं। ५. कर्म-मीमांसा कर्मके विषयमें तुलनात्मक ढगसे या स्वतंत्र भावसे अनेक लेखकोंने बहत कुछ लिखा है । तथापि जैन दर्शनने कर्मको जिस रूपमें स्वीकार किया है वह दृष्टिकोण सर्वथा लुप्त होता जा रहा है । जैन कर्मवादमें ईश्वरवादकी छाया आती जा रही है। यह भल वर्तमान लेखक ही कर रहे हैं ऐसी बात नहीं है पिछले लेखकोंसे भी ऐसी भूल हई है । इसी दोषका परिमार्जन करनेके लिये स्वतंत्र भावसे इस विषय पर लिखना जरूरी समझकर यहाँ संक्षेपमें इस विषयकी मीमांसा की जा रही है। छह द्रव्योंका स्वरूप निर्देश-भारतीय सब आस्तिक दर्शनोंने जीवके अस्तित्वको स्वीकार किया है। जैनदर्शनमें इसकी चर्चा विशेष रूपसे की गई है । समय प्राभूतमें जीवके स्वरूपका निर्देश करते हुए इसे' रस रहित, गन्धरहित, रूपरहित, स्पर्शरहित, अव्यक्त और चेतना गुणवाला बतलाया है । यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र में जीवको उपयोग लक्षणवाला लिखा है पर इससे उक्त कथनका ही समर्थन होता है। ज्ञान और दर्शन ये चेतनाके भेद है । उपयोग शब्दसे इन्हींका बोध होता है। ज्ञान और दर्शन यह जीवका निज स्वरूप है जो सदा काल अवस्थित रहता है । जीवमात्रमें यह सदा पाया जाता है। इसका कभी भी अभाव नहीं होता। जो तिर्यंच योनिमें भी निकृष्टतम योनिमें विद्यमान है उसके भी यह पाया जाता है और परम उपास्य देवत्वको प्राप्त है उसके भी यह पाया जाता है। यह सबके पाया जाता है। ऐसा कोई भी जीव नहीं है जिसके यह नहीं पाया जाता है। जीवके सिवा ऐसे बहुतसे पदार्थ हैं जिनमें ज्ञान-दर्शन नहीं पाया जाता । वैज्ञानिकोंने ऐसे जड़ पदार्थोंकी संख्या कितनी ही क्यों न बतलाई हो पर जैनदर्शनमें वर्गीकरण करके ऐसे पदार्थ पाँच बतलाये गये हैं जो ज्ञानदर्शनसे रहित है । वैज्ञानिकों द्वारा बतलाये गये सब जड़ तत्त्वोंका समावेश इन पाँच तत्त्वोंमें हो जाता है। १. 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसदं । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं ।'-समयप्राभृत गाथा ४९। २. 'उपयोगो लक्षणम् ।' त० सू० २-८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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