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चतुर्थ खण्ड : ५०१
जीवबन्धविचार-यों तो जीवकी बद्ध और मुक्त अवस्था सभी आस्तिक दर्शनोंने स्वीकारकी है । बहुतसे दर्शनोंका प्रयोजन ही निश्रेयस प्राप्ति है। किन्तु जैन दर्शनने बन्ध-मोक्षकी जितनी अधिक चर्चाकी है उतनी अन्यत्र देखनेको नहीं मिलती। जैन आगमका बहुभाग इसकी चर्चासे भरा पड़ा है। वहाँ जीव क्यों और कबसे बँधा है, बद्ध जीवकी कैसी अवस्था होती है, बँधनेवाला दूसरा पदार्थ क्या है जिसके साथ जीवका बन्ध होता है, बन्धसे इस जीवका छुटकारा कैसे होता है, बन्धके कितने भेद हैं, बँधनेके बाद उस दूसरे पदार्थ का जीवके साथ कब तक सम्बन्ध बना रहता है, बंधनेवाले दूसरे पदार्थके सम्पर्कसे जीवकी विविध अवस्थाएँ कैसे होती हैं, बँधनेवाला दूसरा पदार्थ क्या जिस रूपमें बँधता है उसी रूप में बना रहता है या परिस्थितिवश उसमें न्यूनाधिक परिवर्तन भी होता है, आदि सभी प्रश्नोंका विस्तृत समाधान किया गया है। आगे हम उक्त प्रश्नोंके आधारसे इस विषयकी चर्चा कर लेना इष्ट समझते हैं।
संसारकी अनादिता-जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि जीवके संसारी और मुक्त ये दो भेद है । जो चतुर्गति-योनियोंमें परिभ्रमण करता है उसे संसारी कहते हैं, इसका दूसरा नाम बद्ध भी है। और जो संसारसे मुक्त हो गया है उसे मुक्त कहते हैं । ये दोनों भेद अवस्थाकृत होते हैं। पहले जीव संसारी होता है और जब वह प्रयत्नपूर्वक संसारका अन्त कर देता है तब वही मुक्त हो जाता है। मुक्त होनेके बाद जीव पुनः संसारमें नहीं आता। उस समय उसमें ऐसी योग्यता ही नहीं रहती जिससे वह पुनः कर्मबन्धको प्राप्त कर सके । कर्मबन्धके मुख्य कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं । जब तक इनका सद्भाव पाया जाता है तभी तक कर्मबन्ध होता है। इनका अभाव होने पर जीव मुक्त हो जाता है । इससे कर्मबन्धके मुख्य कारण मिथ्यात्व आदि हैं यह ज्ञात होता है। ये मिथ्यात्व आदि जीवके वे परिणाम हैं जो बद्धदशामें होते हैं । अबद्ध जीवके इनका सद्भाव नहीं पाया जाता। इससे कर्मबन्ध और मिथ्यात्व आदिका कार्यकारणभाव सिद्ध होता है । बद्ध जीवके कर्मोंका निमित्त पाकर मिथ्यात्व आदि होते हैं और मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे कर्मबन्ध होता है यह कार्यकारण भावकी परम्परा है। इसी भावको स्पष्ट करते हुए समयप्राभूतमें लिखा है
'जीवपरिणामहेहूँ कम्मत्तं पूग्गला परिणमंति ।
पुग्गलकम्मणिमित्तौं तहेव जीवो वि परिणमइ ॥८॥ 'जीवके मिथ्यात्व आदि परिणामोंका निमित्त पाकर पुद्गलोंका कर्मरूप परिणमन होता है और पुद्गल कर्मके निमित्तसे जीव भी मिथ्यात्व आदि रूप परिणमता है।'
कर्मबन्ध और मिथ्यात्व आदिकी यह परम्परा अनादि कालसे चली आ रही है। आगममें इसके लिये बीज और वृक्षका दृष्टान्त दिया गया है । इस परम्पराका अन्त किया जा सकता है पर प्रारम्भ नहीं। इसीसे व्यक्तिकी अपेक्षा मुक्तिको सादि और संसारको अनादि माना है।
संसारका मुख्य कारण कर्म है-संसार और मुक्त ये जीवकी दो दशाएँ है यह हम पहले ही बतला आये हैं । यों तो इन दोनों अवस्थाओंका कर्ता स्वयं जीव है। जीव ही स्वयं संसारी होता है और जीव ही मुक्त । राग-द्वेष आदिरूप अशुद्ध और केवलज्ञान आदिरूप शुद्ध जितनी भी अवस्थाएँ होती हैं वे सब जीवकी ही होती हैं, क्योंकि जीवके सिवा ये अन्य द्रव्यमें नहीं पाई जाती। तथापि इनमें जो शुद्धता और अशुद्धताका भेद किया जाता है वह निमित्तकी अपेक्षासे ही किया जाता है। निमित्त दो प्रकारके माने गये हैं। एक वे जो साधारण कारणरूपसे स्वीकार किये गये है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्योंका सद्भाव इसी
१. 'संसारिणो मक्तश्च ।'-त० सू० २-१० ।
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