________________
५०८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
उसीसे 'दूसरा प्रमाण वे यों देते हैं
'बहु र कर्मनि विष वेदनीयके उदयकरि शरीर विषै बाह्य सुख दुःखका कारण निपज हैं। शरीर विषै आरोग्यपनौ रोगीपनौ शक्तिवानपनौ दुर्बलपनौ अर क्षुधा तृषा रोग खेद पीड़ा इत्यादि सुख दुःखनिके कारण हो हैं । बहुरि बाह्य विषै सुहावना ऋतु पवनादिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक वा मित्र धनादिक" सुख दुःखके कारक हो हैं ।' पृ० ५९ ।
इन विचारोंकी परम्परा यहीं तक नहीं जाती है किन्तु इससे पूर्ववर्ती बहुतसे लेखकोंने भी ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं। पुराणोंमें पुण्य और पापकी महिमा इसी आधारसे गाई गई है । अमितिगतिके सुभाषित रत्नसन्दोह में देवनिरूपण नामका एक अधिकार है । उसमें भी ऐसा ही बतलाया है । वहाँ लिखा है कि पापी जीव समुद्रमें प्रवेश करनेपर भी रत्न नहीं पाता किन्तु पुण्यात्मा जीव तटपर बैठे ही उन्हें प्राप्त कर लेता है ।
यथा
जलधिगतोऽपि न कश्चित्कश्चित्तटगोऽपि रत्नमुपयाति ।
किन्तु विचार करनेपर उक्त कथन युक्त प्रतीत नहीं होता । खुलासा इस प्रकार है
कर्म के दो भेद हैं- जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी । जो जीवकी विविध अवस्था और परिमाणोंके
।
होनेमें निमित्त होते हैं वे जीवविपाकी कर्म कहलाते हैं और जिनसे विविध प्रकारके शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वासकी प्राप्ति होती है वे पुद्गलविपाकी कर्म कहलाते हैं । इन दोनों प्रकारके कर्मोंमें ऐसा एक भी कर्म नहीं बतलाया है जिसका काम बाह्य सामग्रीका प्राप्त कराना हो । सातावेदनीय और असातावेदनीय ये स्वयं जीवविपाकी हैं । राजवार्तिकमें इनके कार्यका निर्देश करते हुए लिखा है
'यस्योदयाद्दे वादिगतिषु शारीरमानससुखप्राप्तिस्तत्सद्वेद्यम् । यत्फलं दुःखमनेकविधं तदसद्वेद्यम् ।' पृष्ठ ३०४ ।
इन वार्तिकोंकी व्याख्या करते हुए वहाँ लिखा है-.
'अनेक प्रकारकी देवादि गतियोंमें जिस कर्मके उदयसे जीवोंके प्राप्त हुए द्रव्य के सम्बन्धकी अपेक्षा शारीरिक और मानसिक नाना प्रकारका सुखरूप परिणाम होता है वह साता वेदनीय है । तथा नाना प्रकारकी नरकादि गतियोंमें जिस कर्मके फलस्वरूप जन्म, जरा, मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, व्याधि, वध और बन्धनादिसे उत्पन्न हुआ विविध प्रकारका मानसिक और कायिक दुःसह दुख होता है वह असाता वेदनीय है ।' सर्वार्थसिद्धिमें जो साता वेदनीय और असाता वेदनीयके स्वरूपका निर्देश किया है। उससे भी उक्त कथन की पुष्टि होती है ।
श्वेताम्बर कार्मिक ग्रन्थोंमें भी इन कर्मोंका यही अर्थ किया है। ऐसी हालतमें इन कर्मोंको अनुकूल व प्रतिकूल बाह्य-सामग्री के संयोग-वियोग में निमित्त मानना उचित नहीं है । वास्तवमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति अपने-अपने कारणोंसे होती है । इसकी प्राप्तिका कारण कोई कर्म नहीं है ।
ऊपर मोक्षमार्ग प्रकाशकके जिस मतकी चर्चाकी उसके सिवा दो मत और मिलते हैं जिनमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति के कारणोंका निर्देश किया गया है। इनमेंसे पहला मत तो पूर्वोक्त मतसे ही मिलता-जुलता है । दूसरा मत कुछ भिन्न है । आगे इन दोनोंके आधारसे चर्चा कर लेना इष्ट है
( १ ) षट्खण्डागम चूलिका अनुयोगद्वारमें प्रकृतियोंका नाम निर्देश करते हुए सूत्र १८ की टीकामें वीरपेन स्वामीने इन कर्मोकी विस्तृत चर्चा की है । वहाँ सर्वप्रथम उन्होंने साता और असाता वेदनीयका वही स्वरूप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org