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५०६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्रो अभिनन्दन-ग्रन्थ हुए कर्मका नवीन बन्धके समय स्थिति-अनुभाग बढ़ सकता है। यह साधारण नियम है। अपवाद भी इसके अनेक हैं।
अपकर्षण-स्थिति और अनुभागके घटानेकी अपकर्षण संज्ञा है। कुछ अपवादोंको छोड़कर किसी भी कर्मको स्थिति और अनुभाग कम किया जा सकता है। इतनी विशेषता है कि शुभ परिणामोंसे अशुभ कर्मोंका स्थिति और अनुभाग कम होता है । तथा अशुभ परिणामोंसे शुभ कर्मोंका स्थिति और अनुभाग कम होता है ।
संक्रमण--एक कर्म प्रकृतिके परमाणुओंका सजातीय दूसरी प्रकृतिरूप हो जाना संक्रमण है यथा असाताके परमाणुओंका सातारूप हो जाना । मूल कर्मोका परस्पर संक्रमण नहीं होता। यथा ज्ञानावरण दर्शनावरण नहीं हो सकता। आयुकर्मके अवान्तर भेदोंका परस्पर संक्रमण नहीं होता और न दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयरूपसे या चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयरूपसे ही संक्रमण होता है।
उदय-प्रत्येक कर्मका फल काल निश्चित रहता है। इसके प्राप्त होनेपर कर्मके फल देनेरूप अवस्थाकी उदय संज्ञा है। फल देनेके बाद उस कर्मकी निर्जरा हो जाती है। आत्मासे जितने जातिके कर्म सम्बद्ध रहते हैं वे सब एक साथ अपना काम नहीं करते । उदाहरणार्थ साताके समय असाता अपना काम नहीं करता। ऐसी हालतमें असाता प्रति समय सातारूप परिणमन करता रहता है और फल भी उसका सातारूप ही होता है। प्रति समय यह क्रिया उदय कालके एक समय पहले हो लेती है। इतना सुनिश्चित है कि बिना फल दिये कोई भी कर्म जीर्ण नहीं होता।
उदीरणा-फल कालके पहले कर्मके फल देनेरूप अवस्थाकी उदीरणा संज्ञा है। कुछ अपवादोंको छोड़कर साधारणतः कर्मोका उदय और उदीरणा सर्वदा होती रहती है । त्यागवश विशेष होती है । उदीरणा उन्हीं कर्मोंकी होती है जिनका उदय होता है । अनुदय प्राप्त कर्मोकी उदीरणा नहीं होती । उदाहरणार्थ जिस मुनिके साताका उदय है उसके अपकर्षण साता और असाता दोनोंका होता है किन्तु उदीरणा साताकी ही होती है। यदि उदय बदल जाता है तो उदीरणा भी बदल जाती है, इतना विशेष है।
उपशान्त--कर्मकी वह अवस्था जो उदीरणाके अयोग्य होती है उपशान्त कहलाती है। उपशान्त 'अवस्थाको प्राप्त कर्मका उत्कर्षण, अपकर्षण और संक्रमण हो सकता है किन्तु इसकी उदीरणा नहीं होतो।
निधत्ति-कर्मकी वह अवस्था जो उदीरणा और संक्रमण इन दो के अयोग्य होती है निधत्ति कहलाती है। निधत्ति अवस्थाको प्राप्त कर्मका उत्कर्षण और अपकर्षण हो सकता है किन्तु इसका उदीरणा और संक्रमण नहीं होता।
निकाचना-कर्मकी वह अवस्था जो उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा और संक्रमण इन चारके अयोग्य होती है निकाचना कहलाती है। इसका स्वमुखेन या परमुखेन उदय होता है । यदि अनुदय प्राप्त होता है तो परमुखेन उदय होता है, नहीं तो स्वमुखेन ही उदय होता है । उपशान्त और निधत्ति अवस्थाको प्राप्त कर्मका उदयके विषयमें यही नियम जानना चाहिये।
यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि सातिशय परिणामोंसे कर्मकी उपशान्त, निधत्ति और निकाचनारूप अवस्थाएँ बदली भी जा सकती है। ये कर्मकी विविध अवस्थाएँ हैं जो यथायोग्य पाई जाती हैं।
कर्मकी कार्य मर्यादा-कर्मका मोटा काम जीवको संसारमें रोक रखना है। परावर्तन संसारका दूसरा नाम है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके भेदसे वह पाँच प्रकारका है। कर्मके कारण ही जीव इन पाँच प्रकारके परावर्तनोंमें घूमता फिरता है। चौरासी लाख योनियाँ और उनमें रहते हए जीवकी जो विविध
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