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५१० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
समाधान--व्यापार करने में अपनी-अपनी योग्यता और उस समयकी परिस्थिति आदि इसका कारण है, पाप ण्य नहीं । संयुक्त व्यापार मे । कको हानि और दूसरेको लाभ हो तो कदाचित् हानि लाभ पाप पुण्यका फल माना भी जाय । पर ऐसा होता नहीं, अतः हानि लाभको पाप पुण्यका फल मानना किसी भी हालतमें उचित नहीं है।
शंका-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य पापका फल नहीं है तो फिर एक गरीब और दूसरा श्रीमान् क्यों होता है ?
समाधान-एकका गरीब और दूसरेका श्रीमान् होना यह व्यवस्थाका फल है, पुण्य पापका नहीं । जिन देशोंमें पुँजीवादी व्यवस्था है और व्यक्तिगत संपत्तिके जोडनेकी कोई मर्यादा नहीं वहाँ अपनी-अपनी
साधनोंके अनसार लोग उसका संचय करते हैं और इसी व्यवस्थाके अनसार गरीब-अमीर इन वर्गों की सुष्टि हआ करती है। गरीब और अमीर इनको पाप पुण्यका फल मानना किसी भी हालतमें उचित नहीं है। रूसने बहुत कुछ अंशोंमें इस व्यवस्थाको तोड़ दिया है, इसलिये वहाँ इस प्रकारका भेद नहीं दिखाई देता है, फिर भी वहाँ पुण्य और पाप तो है ही । सचमुच में पुण्य और पाप तो वह है जो इन बाह्य व्यवस्थाओंके परे हैं और वह है आध्यात्मिक । जैन कर्मशास्त्र ऐसे ही पुण्य पापका निर्देश करता है।
शंका-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य पापका फल नहीं है तो सिद्ध जीवोंको इसकी प्राप्ति क्यों नहीं होती?
समाधान-बाह्य सामग्रीका सद्भाव जहाँ है वहीं उसकी प्राप्ति सम्भव है। यों तो इसकी प्राप्ति जड़ चेतन दोनोंको होती है । क्योंकि तिजोड़ीमें भी धन रखा रहता है, इसलिये उसे भी धनकी प्राप्ति कही जा सकती है। किन्तु जड़के रागादि भाव नहीं होता और चेतनके होता है। इसलिये वही उसमें ममकार और अहंकार भाव करता है।
शंका-यदि बाह्य सामग्रीका लाभालाभ पुण्य पापका फल नहीं है तो न सही पर सरोगता और नीरोगता यह तो पाप पुण्यका फल मानना ही पड़ता है ?
समाधान-सरोगता और नीरोगता यह पाप पुण्यके उदयका निमित्त भले ही हो जाय पर स्वयं यह पाप पुण्यका फल नहीं है। जिस प्रकार बाह्य सामग्री अपने-अपने कारणोंसे प्राप्त होती है उसी प्रकार सरोगता और नीरोगता भी अपने-अपने कारणोंसे प्राप्त होती है। इसे पाप पुण्यका फल मानना किसी भी हालतमें उचित नहीं है।
शंका-सरोगता और नीरोगताके क्या कारण है ?
समाधान-अस्वास्थ्यकर आहार, विहार व संगति करना आदि सरोगताके कारण हैं और स्वास्थ्यवर्धक आहार, विहार व संगति करना आदि नीरोगताके कारण है।
इस प्रकार कर्मकी कार्यमर्यादाका विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म बाह्य सम्पत्तिके संयोग वियोगका कारण नहीं है। उसकी तो मर्यादा उतनी ही है जिसका निर्देश हम पहले कर आये हैं। हाँ जीवके विविध भाव कर्मके निमित्तसे होते हैं और वे कहीं कहीं बाह्य सम्पत्तिके अर्जन आदिमें कारण पड़ते है इतनी बात अवश्य है।
नैयायिक दर्शन-यद्यपि स्थिति ऐसी है तो भी नैयायिक कार्यमात्रके प्रति कर्मको कारण मानते हैं । वे कर्मको जीवनिष्ठ मानते हैं । उनका मत है कि चेतनगत जितनी विषमताएं है उनका कारण कर्म तो है हो । साथ ही वह अचेतनगत सब प्रकारकी विषमताओंका और उनके न्यूनाधिक संयोगोंका भी जनक है। उनके
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