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चतुर्थखण्ड : ५१३ इष्टवियोग आदि जितने भी कार्य हैं वे अच्छे बुरे कर्मकि कार्य नहीं । निमित्त और बात है तथा कार्य और बात । निमित्तको कार्य कहना उचित नहीं है ।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड में एक नोकर्म प्रकरण आया है। उससे भी उक्त कथनकी ही पुष्टि होती है । वहाँ मूल और उत्तर कर्मो के नोकर्म बतलाते हुए 'इष्ट अन्न पान आदिको असाता वेदनीयका, विदूषक या बहुरूपियाको हास्य कर्मका, सुपुत्रको रतिकर्मका, इष्टवियोग और अनिष्ट संयोगको अरति कर्मका, पुत्रमरणको शोक कर्मका, सिंह आदिको भय कर्मका और ग्लानिकर पदार्थोंको जुगुप्सा कर्मका नोकर्म द्रव्यकर्म बतलाया है । गोम्मटसार कर्मकाण्डका यह कथन तभी बनता है जब धन सम्पत्ति और दरिद्रता आदिको शुभ और अशुभ कर्मोंके उदयमें निमित्त माना जाता है ।
कर्मो के अवान्तर भेद करके उनके जो नाम गिनाये गये हैं उनको देखनेसे भी ज्ञात होता है कि बाह्य सामग्रियोंकी अनुकूलता और प्रतिकूलता में कर्म कारण नहीं हैं । बाह्य सामग्रियोंकी अनुकूलता और प्रतिकूलता या तो प्रयत्नपूर्वक होती है या सहज ही हो जाती है । पहले साता वेदनीयका उदय होता है और तब जाकर इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति होती है ऐसा नहीं है । किन्तु इष्ट सामग्रीका निमित्त पाकर साता वेदनीयका उदय होता है ऐसा है ।
रेलगाड़ीसे सफर करने पर हमें कितने ही प्रकारके मनुष्योंका समागम होता है । कोई हँसता हुआ मिलता है तो कोई रोता हुआ । इनसे हमें सुख भी होता है और दुख भी । तो क्या ये हमारे शुभाशुभ कर्मोंके कारण रेलगाड़ी में सफर करने आये हैं ? कभी नहीं । जैसे हम अपने कामसे सफर कर रहे हैं वैसे वे भी अपनेअपने कामसे सफर कर रहे हैं । हमारे और उनके संयोग और वियोग में न हमारा कर्म कारण है और न उनका ही कर्म कारण है । यह संयोग या वियोग या तो प्रयत्नपूर्वक होता है या काकतालीय न्यायसे सहज होता है । इसमें किसीका कर्म कारण नहीं है । फिर भी यह अच्छे बुरे कर्मके उदयमें सहायक होता रहता है ।
नैयायिक दर्शनकी आलोचना - इस व्यवस्थाको ध्यान में रखकर नैयायिकों के कर्मवादकी आलोचना करने पर उसमें अनेक दोष दिखाई देते हैं । वास्तवमें देखा जाय तो आजकी सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था और एकतन्त्र के प्रति नैयायिकोंका ईश्वरवाद और कर्मवाद ही उत्तरदायी है । इसीने भारतवर्षको चालू व्यवस्थाका गुलाम बनाना सिखाया । जातीयताका पहाड़ लाद दिया । परिग्रहवादियोंको परिग्रहके अधिकाधिक संग्रह करने में मदद दी । गरीबीको कर्मका दुर्विपाक बताकर सिर न उठाने दिया । स्वामी सेवक भाव पैदा किया। ईश्वर और कर्मके नाम पर यह हमसे कराया गया । धर्मने भी इसमें मदद की। विचारा कर्म तो बदनाम हुआ ही, धर्मको भी बदनाम होना पड़ा। यह रोग भारतवर्ष में न रहा । भारतवर्ष के बाहर भी फैल गया ।
यद्यपि जैन कर्मवादकी शिक्षाओं द्वारा जनताको यह बतलाया गया कि जन्मसे न कोई छूत होता है और न अछूत । यह भेद मनुष्यकृत है । एकके पास अधिक पूँजीका होना और दूसरेके पास एक दमड़ीका न होना, एकका मोटरोंमें घूमना और दूसरेका भीख माँगते हुए डोलना यह भी कर्मका फल नहीं है, क्योंकि यदि अधिक पूँजीको पुण्यका फल और पूँजीके न होनेको पापका फल माना जाता है तो अल्पसंतोषी और साधु दोनों ही पापी ठहरेंगे । किन्तु इन शिक्षाओंका जनता और साहित्य पर स्थायी असर नहीं हुआ ।
अजैन लेखकोंने तो नैयायिकोंके कर्मवादका समर्थन किया ही, किन्तु उत्तरकालवर्ती जैन लेखकोंने जो कथा-साहित्य लिखा है उससे भी प्रायः नैयायिक कर्मवादका ही समर्थन होता है। वे जैन कर्मवादके अध्या१. गाथा ७३ ।
२. गाथा ७६ ।
३. गाथा ७७ ।
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