________________
४८२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
३ – 'कृत' ऐसी बुद्धिका विषय और ४ - विकारीपना । किन्तु इनका सांगोपांग विचार करनेपर कार्यत्वहेतुसे बुद्धिमान् कर्ताकी सिद्धि नहीं हो सकती । विशेष ऊहापोहके लिए पृ० २२१ से २२५ तक देखिए ।
इस प्रकार गुरुजी ने 'ईश्वर सृष्टिका कर्त्ता है' इस मतका बड़ी सशक्त युक्तियों द्वारा खण्डन करके इस अधिकारको समाप्त करते हुए अन्त में सृष्टिकर्तृत्व धर्मसे शून्य देव ही आदर करने योग्य बतलाया है । मूल्याङ्कन
जैन-सिद्धान्त दर्पण उक्त विषय विवेचनसे स्पष्ट है कि गुरुजीने तत्त्वार्थराजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, अष्टसहस्री, गोम्मटसार लब्धिसार, समयसार और प्रवचनसार प्रभृति आर्ष ग्रन्थोंके आधारपर उक्त ग्रन्थका प्रणयन किया है। बड़े-बड़े गम्भीर सैद्धान्तिक विषयों को हिन्दी भाषा द्वारा सरलरूपमें प्रस्तुत कर अपनी मौलिकताका परिचय दिया है । प्राचीन भाषाओंसे अनभिज्ञ व्यक्ति भी इस ग्रन्थके अध्ययनसे सैद्धान्तिक विषयोंका पाण्डित्य प्राप्त कर सकता । मौलिकता सम्बन्धी मूल्यांकनको दृष्टिसे इस ग्रन्थकी तुलना आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी के 'मोक्षमार्गप्रकाश' से की जा सकती है । अतः जितना मौलिक मूल्य 'मोक्षमार्ग प्रकाश' का है, उतना ही मौलिक 'जैन सिद्धान्तदर्पण' का भी । टोडरमलजीने अनेक आर्ष ग्रन्थोंका अध्ययनकर विषय सामग्रीको स्वायत्त किया और मोक्षमार्ग सम्बन्धी निश्चित एवं व्यवहारनयोंकी यथार्थ रूपमें विवेचनकर विषय-सामग्रीको नये रूपमें प्रस्तुत किया। उनका यह कार्य श्रुतपरम्परा के इतिहास में एक नयी कड़ीके रूपमें माना जा सकता है। इसी प्रकार गुरुजीने भी जैनागमके अनेक ग्रन्थोंसे आधारभूत सामग्री ग्रहणकर 'जैन सिद्धान्तदर्पण' की रचनाकर अपनी मौलिकताका मानदण्ड स्थापित किया है । प्रतिपादन और ग्रथनशैली गुरुजीकी अपनी है । 'नद्या नव घटे जलम्' के समान उनका यह ग्रन्थ मौलिक है तथा श्रुताध्ययनके लिए इसका मूल्य किसी भी प्राचीन या अर्वाचीन ग्रन्थसे कम नहीं है । एक लम्बे समयतक अनेक ग्रन्थोंके अध्ययनसे जिन विषयोंका ज्ञान प्राप्त किया जायगा, उन विषयोंका पाण्डित्य गुरुजीके अकेले 'जैन सिद्धान्त दर्पण' के अध्ययनसे प्राप्त किया जा सकता है । अतः पाण्डित्य प्राप्तिकी दृष्टिसे भी इस ग्रन्थका मूल्य कम नहीं है ।
यहाँ इस बातका स्पष्टीकरण कर देना भी आवश्यक है कि यह ग्रन्थ किसी अन्य रचनाका अनुवाद नहीं है और न अनेक ग्रन्थोंके महत्त्वपूर्ण अंशोंका अनुवाद कर ही इसका कलेवर घटित किया गया है। बल्कि यह तो उन श्रुतधरोंकी परम्परामें आता है, जो आचार्य परम्परासे प्राप्त विषयभूत सामग्रीको लेकर सर्वजनोपयोगी रचनाएँ निबद्ध करते हैं । जिनकी कृतियोंकी आभा सच्चे मार्ग - माणिक्योंके समान कभी भी कम नहीं होती । जिनका मूल्य शाश्वतिक होता है । प्राचीन कृतियोंमें उत्साहका जो आदर्श और उदात्त रूप वर्तमान है, वही इस रचना में भी निहित हैं ।
गुरुजीकी यह रचनात्मक प्रक्रिया श्रुतपरम्परामें अभिन्नार्थता प्रस्तुत करनेपर भी नवीन मूल्यों और प्रतिमानोंको स्थापित करती है । उनके चिन्तनके परिवेशमें शास्त्रार्थोंकी गन्ध भी समाविष्ट है और उनके युग के ज्वलन्त प्रश्न 'सृष्टिकर्तृत्व' की मीमांसा भी निहित है। अतः इस कृतिका मूल्यांकन निम्न दृष्टि सूत्रों में उपस्थित किया जा सकता है।
१. मौलिकता 'नद्या नवघटे जलम्' के समान ।
२. विषयभूत सामग्रीकी क्रमबद्धता और गम्भीर विषयोंकी सरलरूपमें प्रतिपादन क्षमता |
३. शास्त्रीय दुरूह विषयोंकी स्पष्टता ।
४, तात्त्विक अभिव्यञ्जनाकी बोधगम्यता ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org