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चतुर्थ खण्ड : ४८१
समय आदिको पुद्गल द्रव्यका परिणाम मानना चाहिए, ऐसा प्रश्न होनेपर गुरुजीका कहना है कि यदि समय, सेकंड आदि पुद्गल द्रव्यके परिणाम माने जाते हैं तो उन्हें, जैसे मिट्टीसे बना हुआ घट मिट्टीरूप अनुभव में आता है उसी प्रकार पुद्गलरूप अनुभवमें आना चाहिए। यतः ये पुद्गलरूप अनुभवमें नहीं आते, अतः इन्हें पुद्गलरूप मानना उचित नहीं। किन्तु इन्हें स्वतन्त्र द्रव्यका ही परिणाम मानना चाहिए और वह स्वतन्त्र द्रव्य कालाणु ही है।
दूसरे जैसे बिल्ली आदिमें मुख्य सिंहके बिना सिंह व्यवहार नहीं किया जा सकता वैसे ही मुख्य काल द्रव्यको स्वीकार किये बिना काल यह व्यवहार नहीं बनता। इस हेतुसे भी काल द्रव्यके अस्तित्वकी सिद्धि होती है।
इस प्रकार अनेक तर्कों और आगमप्रमाणोंसे मुख्य कालद्रव्यकी सिद्धि करके गुरुजीने परिणाम, परत्व, अपरत्व और क्रिया इनके द्वारा व्यवहारकालका ज्ञान कराया है। तदनन्तर उत्सर्पिणी-आदि कालोंके भेद और उनका प्रमाण बतलाते हुए कहाँ कौन काल प्रवर्तता है इत्यादि विशेष विचार कर यह अधिकार समाप्त किया है।
आठवाँ अधिकार है-सृष्टिकर्तृत्वमीमांसा (पृ० २०९ से २३८ तक)। इस अधिकारको प्रारम्भ करनेके पूर्व गुरुजीने 'परमागमस्य बीजं' इत्यादि श्लोक उद्धृतकर 'अनेकान्त' को नमस्कार किया है। अनन्तर प्रश्नोत्तररूपसे लोक क्या है, द्रव्यका सामान्य विशेष लक्षण क्या है इत्यादि प्रश्नोंका समाधान करते हुए ईश्वरका अर्थ क्या है इस प्रश्नका मुक्तात्मा ही ईश्वर है यह उत्तर देकर सृष्टि कर्ताके रूपमें अनेक तर्कों द्वारा ईश्वरका निषेध किया है।
सर्व प्रथम ईश्वर सृष्टिका उपादान तो हो नहीं सकता इस तथ्यका समर्थन किया है। उसके बाद उसे लोक निर्माणका निमित्तकर्ता स्वीकार करनेपर जो-जो आपत्तियाँ आती हैं उनका निर्देश किया है। प्रथम आपत्ति उपस्थित करते हुए बतलाया है कि जिस प्रकार लोकमें घटादि कार्योंके कुम्भकारादि निमित्त कर्ता देखे जाते हैं उस प्रकार मेघवृष्टि और घासादिकी उत्पत्ति आदि कार्योंके कुम्भकारादिके समान कोई निमित्तकर्ता नहीं देखे जाते, अतः सृष्टिकर्ताके रूपमें ईश्वरकी सत्ता स्वीकार करने में कोई स्वारस्य नहीं है।
यहाँ ईश्वरवादियोंका कहना है कि जितने भी कार्य है वे सब सुव्यवस्थित देखे जाते हैं, अतः उनका कोई बुद्धिमान कर्ता अवश्य होना चाहिए और वह बुद्धिमान् ईश्वरके सिवाय अन्य दूसरा नहीं हो सकता।
इसका समाधान करते हुए गुरुजीका कहना है कि लोकरूप कार्यको सुव्यवस्थित मानना यह कोरी कल्पना है, क्योंकि लोकमें अच्छे-बुरे सब प्रकारके कार्य देखे जाते हैं । यदि सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और बुद्धिमान् कोई इस लोकका कर्ता होता तो उसमें यह विचित्रता नहीं दिखाई देती । इस विचित्रताका कारण भले बुरे कर्मोको मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि वे भी कार्य हैं जो उक्त विशेषणोंसे विशिष्ट कर्ताक स्वीकार करनेपर दो प्रकारके बन ही नहीं सकते ।
दुसरे कार्य-कारणभाव और अन्वय-व्यतिरेक इन दोनोंमें गम्य-गमक अर्थात् व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। इसके अनुसार ईश्वरको यदि लोक (स ष्टि) का कर्ता स्वीकार किया जाता है तो उनमें अन्वय-व्यतिरेक बनना चाहिए । परन्तु ईश्वरका लोकके साथ क्षेत्र और कालरूप दोनों प्रकारका व्यतिरेक नहीं बनता, इसलिए भी ईश्वरको लोकका कर्ता मानना उचित नहीं है ।
तीसरे 'पृथिवी आदिक बुद्धिमत्कर्तृक हैं, कार्य हो नेसे, घटादिकके समान । इस अनुमितिमें जो कार्यत्व हेतु है उसके चार अर्थ हो सकते है-१. सावयवत्व, २-प्राक् असत् पदार्थके स्वकारणसत्ता समवाय,
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