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४९० : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
७१ गाथाओं घटित थाय छे । आद्य गाथाने मंगल गाथा तरीके समजवाथी सित्तरीनी सित्तेर गाथाओ थई जाय छ ।'
किन्तु इस गाथाके अन्तमें केवल 'पाढंतरं' ऐसा लिखा होनेसे इसे मूल गाथा न मानना युक्त प्रतीत नहीं होता। जब इसपर चणि और आचार्य मलयगिरिकी टीका दोनों है तब इसे मूल गाथा मानना ही उचित प्रतीत होता है । हमने इसी कारण प्रस्तुत संस्करणमें ७२ गाथाएँ स्वीकारकी हैं। इनमेंसे अन्तकी दो गाथाएँ विषयकी समाप्तिके बाद आई है, अतः उनकी गणना नहीं करने पर ग्रन्थका सित्तरी यह नाम सार्थक ठहरता है।
ग्रन्थकर्ता-सप्ततिकाके रचयिता कौन थे, अपने पावन जीवनसे किस भूमिको उन्होंने पवित्र किया था, उनके माता-पिता कौन थे, दीक्षागुरु और विद्यागुरु कौन थे, इन सब प्रश्नोंके उत्तर पानेके वर्तमानमें कोई साधन उपलब्ध नहीं है। इस समय सप्ततिका और उसकी दो टीकाएँ हमारे सामने हैं । कर्ताक नाम ठामके निर्णय करने में इनसे किसी प्रकारकी सहायता नहीं मिलती।
यद्यपि स्थिति ऐसी है तथापि जब हम शतककी अन्तिम १०४ व १०५ नम्बरवाली गाथाओंसे सप्ततिकाकी मंगल गाथा और अन्तिम गाथाका क्रमशः मिलान करते हैं तो यह स्वीकार करनेको जी चाहता है कि बहुत सम्भव है कि इन दोनों ग्रन्थोंके संकलयिता एक ही आचार्य हों।।
जैसे सप्ततिकाकी मंगल गाथामें इस प्रकरणको दृष्टिवाद अंगकी एक बंदके समान बतलाया है वैसे ही शतककी १०४ नम्बरवाली गाथामें भी उसे कर्मप्रवाद श्रुतरूपी सागरकी एक बूंदके समान बतलाया गया है । जैसे सप्ततिकाकी अन्तिम गाथामें ग्रन्थकर्ता अपने लाघवको प्रकट करते हुए लिखते हैं कि 'अल्पज्ञ मैंने त्रुटित रूपसे जो कुछ भी निबद्ध किया है उसे बहुश्रुतके जानकार पूरा करके कथन करें ।' वैसे ही शतककी १०५वीं गाथामें भी उसके कर्ता निर्देश करते हैं कि 'अल्पश्रुतवाले अल्पज्ञ मैंने जो बन्धविधानका सार कहा है उसे बन्ध-मोक्षकी विधिमें निपुण जन पूरा करके कथन करें।' दूसरी गाथाके अनुरूप एक गाथा कर्म प्रकृतिमें भी पाई जाती है। गाथाएँ ये हैं
वोच्छं सुण संखेवं नीसंदं दिट्ठिवायस्स ॥१।। सप्ततिका। कम्मप्पवायसुयसागरस्स णिस्संदमेत्ताओ ।।१०४॥ शतक । जो जत्थ अपडिपून्नो अत्थो अप्पागमेण बद्धो त्ति । तं खमिऊण बहुसुया पूरेऊणं परिकहंतु ॥७२॥ सप्ततिका । बंधविहाणसमासो रइओ अप्पसूयमंदमइणा उ ।
तं बंधमोक्खणिउणा पूरेऊणं परिकहेंति ॥१०५।। शतक । इनमें णिस्संद, अप्पागन, अप्पसुयमंदमइ, पूरेऊणं परिकहंतू ये पद ध्यान देने योग्य है ।
इन दोनों ग्रन्थोंका यह साम्य अनायास नहीं है। ऐसा साम्य उन्हीं ग्रंथों में देखनेको मिलता है जो या तो एक कर्तृक हों या एक दूसरेके आधारसे लिखे गये हों। बहत सम्भव है कि शतक और सप्ततिका इनके कर्ता एक आचार्य हों।
शतककी चुणिमें ' शिवशर्म आचार्यको उसका कर्ता बतलाया है। ये वे ही शिवशर्म प्रतीत होते हैं जो १. केण कयं ति, शब्दतर्कन्यायप्रकरणकर्मप्रकृतिसिद्धान्तविजाणएण अणेगवायसमालद्धविजएण सिवसम्मायरिय
णामधेज्जेण कयं, पृ०१।
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