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४९६ :सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
बतलाये गये हैं, किन्तु दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें क्षपकश्रेणिमें निद्राद्विकका उदय होता है, इस मतको प्रधानता देकर भंग बतलाये गये हैं।
___२. प्रस्तुत सप्ततिकामें मोहनीयके उदयविकल्प और पदबृन्द दो प्रकारसे बतलाये गये हैं किन्तु दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें वे एक प्रकारके ही बतलाये गये हैं।
३. प्रस्तुत सप्ततिकामें नामकर्मके १२ उदयस्थान बतलाये गये हैं। कर्मकाण्डमें भी ये ही १२ उदयस्थान निबद्ध किये गये है। किन्तु दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें २० प्रकृतिक उदयस्थान छोड़ दिया गया है।
४. प्रस्तुत सप्ततिकामें आहारक शरीर व आहारक अंगोपांग और वैक्रिय शरीर व वैक्रिय अंगोपांग इन दो युगलोंको उद्वेलना होते समय इनके बन्धन और संघातकी उद्वेलना नियमसे होती है इस सिद्धान्तको स्वीकार करके नामकर्मके सत्वस्थान बतलाये गये हैं। गोम्मटसार कर्मकाण्डके सत्वस्थान प्रकरणमें इसी सिद्धान्तको स्वीकार किया गया है, किन्तु दिगम्बर परम्पराको सप्ततिकामें उद्वेलना प्रकृतियोंमें आहारक व वैक्रिय शरीरके बन्धन और संघात सम्मिलित नहीं करके नामकर्मके सत्वस्थान बतलाये गये है। गोम्मटसार कर्मकाण्डके त्रिभंगी प्रकरण में इसी सिद्धिन्तको स्वीकार किया गया है।
मान्यता भेदके ये चार ऐसे उदाहरण हैं जिनके कारण दोनों सप्ततिकाओंकी अनेक गाथाएँ जुदीजदी हो गई हैं और अनेक गाथाओंमें पाठभेद भी हो गया है। फिर भी ये मान्यताभेद सम्प्रदायभेद पर आधारित नहीं हैं।
इसी प्रकार कहीं-कहीं वर्णन करनेकी शैलीमें भेद होनेसे गाथाओंमें फरक पड़ गया है। यह अन्तर उपशमना प्रकरण और क्षपणाप्रकरणमें देखनेको मिलता है। प्रस्तुत सप्ततिकामें उपशमना और क्षपणाकी खासखास प्रकृतियोंका ही निर्देश किया गया है । दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकामें क्रमानुसार उपशमना और क्षपणा सम्बन्धी सब प्रकृतियोंकी संख्याका निर्देश करनेकी व्यवस्था की गई है।
. इस प्रकार यद्यपि इन दोनों सप्ततिकाओंमें भेद पड़ जाता है तो भी ये दोनों एक उद्गमस्थानसे निकलकर और बीच-बीचमें दो धाराओंमें विभक्त होती हुई अन्तमें एकरूप हो जाती है।
दिगम्बर परम्पराकी सप्ततिकाकी प्राचीनता-पहले हम अनेक बार प्राकृत पंचसंग्रहका उल्लेख कर आये हैं । इसका सामान्य परिचय भी दे आये हैं। कुछ ही समय हुआ जब यह ग्रन्थ प्रकाशमें आया है । अमितिगतिका पंचसंग्रह इसीके आधारसे लिखा गया है। अमितिगतिने इसे विक्रम संवत् १०७३ में पूरा किया था। इसमें वही क्रम स्वीकार किया गया है जो प्राकृत पंचसंग्रहमें पाया जाता है। केवल नामकर्मके उदयस्थानोंका विवेचन करते समय प्राकृत पंचसंग्रहके क्रमको छोड़ दिया गया है। प्राकृत पंचसंग्रहमें नाम कर्मका २० प्रकृतिक उदयस्थान नहीं बतलाया है। प्रतिज्ञा करते समय इसमें भी २० प्रकृतिक उदयस्थानका निर्देश नहीं किया है । किन्तु उदयस्थानोंका व्याख्यान करते समय इसे स्वीकार कर लिया है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड में भी पंचसंग्रहका पर्याप्त उपयोग किया गया है। कर्मकाण्डमें ऐसे दो मतोंका उल्लेख मिलता है जो स्पष्टतः प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकासे लिये गये जान पड़ते हैं । एक मत अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उपशमनावाला है और दूसरे मतका सम्बन्ध कर्मकाण्डमें बतलाये गये नामकर्मके सत्त्वस्थानोंसे है। दिगम्बर परम्परामें ये दोनों मत प्राकृत पंचसंग्रहकी सप्ततिकाके सिवा अन्यत्र देखने में नहीं आये।
१. 'त्रिसप्तत्यधिकेऽब्दानां सहस्र शकविद्विषः। मसूतिकापूरे जातमिदं शास्त्र मनोरमम् ॥' अ० पंचसं प्र० । २. देखो अ० पंचसं, पृ० १६८। ३. देखो अ० पंचसं०, पृ० १७९ ।
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